आर्य समाज के 10 नियम क्या है – आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 ई के अंदर की थी। यह आंदोलन हिंदु धर्म के अंदर सुधार करने के लिए आरम्भ हुआ था । और पूरी तरह से शुद्ध वैदिक संस्कृति के उपर आधारित था ।था मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बलि, झूठे कर्मकाण्ड व अन्धविश्वासों को अस्वीकार करते थे। इसमें छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने व वेद पढ़ने का अधिकार देने मे भी भरोशा करते थे ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रंथ काफी अधिक प्रसिद्ध है। इस समाज के अंदर बहुत सारे आर्य समाजी जोकि काफी फेमस रहे उनके नाम कुछ इस प्रकार से हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, पंडित गुरुदत्त, स्वामी आनन्दबोध सरस्वती, चौधरी छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, पंडित वन्देमातरम रामचन्द्र राव, के बाबा रामदेव
आर्य समाज ओम पर भरोशा करते हैं। और कहा गया कि उनके अनेक गुण होने के कारण उनको अनेक तरह से माना जाता है जैसे कि ब्रह्मा, महेश, विष्णु, गणेश, देवी, अग्नि, शनि आदि । इनके अलग अलग नामों से मूर्ति पूजा ठीक नहीं है। इसके अलावा आर्यसमाज जाति के अंदर भरोशा नहीं करते हैं। वे वर्ण व्यवस्था को मानते हैं। और कर्म से जो होता है , उसको मानते हैं।यह स्वदेशी और स्वभाषा के पोषक होते हैं।
आर्य समाज, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को मानता है । और आर्य समाज के अंदर बीड़ी ,सीगरेट , और तंबाकू मिर्च मशाले आदि को बैन किया गया है। उनको अच्छा नहीं माना गया है।
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आर्य समाज के 10 नियम क्या है
- ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसकी ही उपासना की जानी चाहिए । अन्य किसी देवी या देवता की उपासना नहीं की जानी चाहिए ।
- जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं , उनका आदिमूल प्ररमेश्वर ही होता है।
- वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। इसको पढ़ना , सुनना या सुनना सभी आर्यों का कर्तव्य है।
- सत्य के ग्रहण करने से और असत्य को छोड़ने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए ।
- सब कार्य धर्म के अनुसार ही करने चाहिए । यानी सत्य और असत्य पर विचार करके आपको करने चाहिए ।
- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उदेश्य होता है। इसके लिए शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना ।
- सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिये
- अविधा का नाश और विधा की बढ़ोतरी करनी चाहिए ।
- प्रत्येक को अपनी उन्नति से संतुष्ट नहीं होना चाहिए । वरन समाज की उन्नति को अपनी उन्नति समझना चाहिए ।
- सब मनुष्यों को स्वतंत्रता है, किसी को किसी के अधीन नहीं रहना चाहिए।
आर्य समाज के सिद्धान्त
आर्य समाज का मतलब होता है श्रेष्ठ और प्रगतिशील । यह खुद वेदों पर चलता है। और दूसरों को भी इसके उपर चलने के लिए कहता है।आर्यसमाजियों के आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगिराज कृष्ण हैं। आर्यसमाजियों ने वेदों को फिर से स्थापित करने का प्रयास किया है। फलित ज्योतिष, जादू-टोना, जन्मपत्री, श्राद्ध, तर्पण, व्रत, भूत-प्रेत, देवी जागरण, मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्रा आदि वेद के विरूद्ध होते हैं। इसलिए इनके उपर भरोशा नहीं करना चाहिए ।उनके अनुसार ईश्वर वायु और प्रकार की तरह सर्वव्यापी होता है। और वह अवतार नहीं लेता है। और अपनी माया से जन्म और मरण प्रदान करने का कार्य करता है।
दैनिक यज्ञ करना हर आर्य का कर्त्तव्य है। आर्य समाज के अनुसार परमाणुओं को ना तो कोई बना सकता है। ना ही कोई नष्ट कर सकता है। इसलिए हम सभी अनादि काल से मौजूद हैं।इस तरह से सत्यार्थ प्रकार आर्य समाज का मूल ग्रंथ है , जोकि वेदों का एक तरह से सार है। इसके अलावा आर्य समाजी गीता व वाल्मीकि रामायण आदि के अंदर भरोशा करते हैं।
आर्यसमाज का योगदान
यदि हम आर्य समाज के योगदान की बात करें , तो आर्यसमाज ने बहुत सारे ऐसे कार्य किये हैं। जोकि काफी उपयोगी साबित हुए । जिसके बारे मे हम बात करने वाले हैं ।
हिंदु धर्म को वेदों की तरफ लेकर जाना
जैसा कि आपको पता होगा कि हिंदु धर्म का मूल वेद ही हैं। आर्य समाज के लोगों ने हिंदु धर्म को वेदों की तरफ ले जाने पर बल दिया । उनका मानना था , कि वेद सबसे प्रमाणित ग्रंथ हैं। और उनके अंदर जो कुछ लिखा गया है , वह सब सत्य है। इसलिए सभी को वेदों को पढ़ना अनिवार्य है।
जाति व्यवस्था मे सुधार
आर्य समाज जाति को नहीं मानते हैं। उनके अनुसार प्राचीन काल मे इस तरह की कोई धारणा मौजूद नहीं है। वेदों के अंदर वर्ण मौजूद होता है। वर्ण व्यवस्था को आर्य समाज मानते हैं। तो एक तरह से आर्य समाजियों ने हिंदु धर्म की जाति व्यवस्था पर काफी गहरी चोट की है।
अंधविश्वासों का खंडन
आर्यसमाज ने जादु टोना , तंत्र मंत्र आदि का खंडन किया है। उनके अनुसार यह सब अंधविश्वास होता है। और इसके अंदर जरा भी सच्चाई नहीं है। इस तरह से बहुत से लोगों को अंधविश्वास से बचाने का कार्य भी किया । उनके अनुसार यह सब झूंठ है। और इनसे कुछ भी नहीं होता है।
नारी शिक्षा को बढ़ावा देना
प्राचीन काल मे भारत के अंदर नारी को शिक्षा देने का कोई भी प्रयास नहीं किया जाता था । आर्य समाज ने नारी शिक्षा को बढ़ावा देने का कार्य किया और वे चाहते थे कि भारती की नारी भी अच्छी तरह से शिक्षित हो जाए , ताकि समाज और देश की उन्नति हो सके ।
विधवा पुनर्विवाह के लिए प्रोत्साहन
पहले भारत के अंदर सती प्रर्था का प्रचलन था । जिसके अंदर यदि कोई महिला का पति मर जाता था , तो वह पति के साथ ही सती हो जाती थी । इस तरह की प्रर्था को रोक लगाने के लिए कहा गया । और विधवा के फिर से विवाह के बारे मे विचार किया गया । ताकि विधवाएं भी एक समानजनक जीवन को अच्छी तरह से जी सकें ।
दहेज प्रथा का विरोध किया।
आर्य समाजियों ने देहज प्रथा का विरोध किया । उनके अनुसार देहज को ना तो लेना चाहिए । और ना ही देना चाहिए । एक तरह से इस विचारधारा की वजह से लड़की के माता पिता पर शादी का खर्च काफी कम हो गया ।
स्वतंत्रता संग्राम मे योगदान
दोस्तों आपको बतादें कि आर्यसमाज के अनेक नेताओं ने स्वतंत्रता संग्राम के अंदर भी अपना योगदान भी दिया है। जिसके बारे मे आपको नहीं भूलना चाहिए ।स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपत राय, भगत सिंह, और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी आर्य समाजी थे।
स्वदेशी आंदोलन
आर्य समाज के लोगों ने स्वदेशी आंदोलन के अंदर भी भाग लिया गया था । जिसको गांधी ने चलाया गया था । जिसके अंदर विदेशी वस्तुओं की बड़ी संख्या के अंदर होली जलाई गई थी , और भारत के अंदर बनने वाली चीजों का मोस्ट वेलकम किया गया था ।
आर्य समाज के विद्धवानों के नाम
आर्य समाज ने कई सारे ज्ञानी पुरूष दिये । उन सभी का तो नाम बताना यहां पर संभव नहीं है। मगर कुछ के बारे मे हम आपको बतादेते हैं।
मीमांसक, ब्रह्मदत्त ‘जिज्ञासु’, पण्डित लेखराम आर्य, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय, आचार्य रामदेव, स्वामी सोमदेव, गुरुदत्त विद्यार्थी, सत्यकेतु विद्यालंकार, गुरुदत्त, पद्मसिंह शर्मा, यशपाल, क्षेम चंद ‘सुमन’, जयचन्द विद्यालंकार, अत्रिदेव विद्यालंकार, पंडित आर्यमुनि, सत्यप्रकाश सरस्वती, राजवीर शास्त्री, इन्द्र विद्यावाचस्पति, डॉ फतह सिंह, बुद्धदेव विद्यालंकार, शांति प्रकाश, ओम आनन्द सरस्वती, राम नारायण आर्य, महात्मा आनन्द स्वामी, स्वामी इन्द्रवेश, आचार्य सोमदेव शास्त्री, उदयवीर शास्त्री, स्वामी आनन्दबोध, आचार्य धर्मवीर, राजेन्द्र जिज्ञासु
आर्यसमाज ने किया हिंदु धर्म मे बड़ा सुधार
जैसा कि आपको पता ही है , कि अंग्रेजों ने भारत के अंदर आने के बाद सबसे पहले भारत के सभी धार्मिक शिक्षा को पूरी तरह से बरबाद कर दिया । क्योंकि उनको यह पता था कि यदि हिंदु लोग धार्मिक शिक्षा को लेंगे , तो वे उनके शासन को उखाड़ फेंक देंगें । आज वही अंग्रेज का ब्रेटेन उनके हाथ से जा चुका है। और वहां पर जल्दी ही इस्लामिक राज आने वाला है। खैर वक्त वक्त की बात होती है। अंग्रेजों ने धीरे धीरे भारत के लोगों को अपनी ही शिक्षा को देना शूरू कर दिया । और इस तरह से अनेक ज्ञानी अंग्रेजों के भक्त बन गये । और उनके चरण धोकर पीने लगे । इन सबसे बचने के लिए और हिंदुओं को संगठित करने के लिए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदों की तरफ लोट चलो का नारा दिया । पुर्नजागरण की व्यवस्था को अपनाने पर जोर दिया गया और अंग्रेजी संस्कृति को छोड़ने और अपनी पुरानी संस्कृति को अपनाने के बारे मे कहा गया ।भारत में समाज सुधार के आंदोलनों में आर्यसमाज अग्रणी था । और हरिजनों के उद्धार करने के लिए उन्होंने काफी कुछ दिया । और जाति व्यवस्था को जन्म से ना मानकर कर्म से माना । और छूआछूत की जो समस्या थी , उसको दूर करने के बारे मे काफी कुछ प्रयास किया गया ।अंधविश्वास और धर्म के नाम पर जो कुछ भी पाखंड हो रहा था , तो उसके उपर कड़ा प्रहार किया गया ।
इसकी प्रसिद्धि तत्कालीन समाज विचारकों, आचार्यों, समाज सुधारकों को प्रभावित करने मे यह काफी सफल रहें । और उसके बाद भारत के अंदर अलग अलग जगहों पर आर्य समाजों की शाखाएं स्थापित हो चुकी थी।यह समाज सही मे राष्ट्रवादी था , और भारत मे पनप रहे पश्चिमी करण को रोकने मे यह काफी अधिक फायदेमंद साबित हुआ ।
इसके अलावा स्वामी जी ने समाज के अंदर सुधार करने के लिए कई सारी कुरितियों का विरोध किया । जैसे कि छूआछूत का घारे विरोध उन्होंने किया । उनके अनुसार इंसान इंसान के अंदर कोई भेद नहीं होता है। हम सभी एक ही परमात्मा की संतान हैं। इसी तरह से कहा गया कि भूर्ति पूजा , तंत्र मंत्र आदि सब कुछ पाखंड है , ईश्वर बस एक है। उसकी ही उपासना करनी चाहिए । इसके अलावा स्वामी जी ने बाल विवाह का विरोध किया , और उसके स्थान पर विधवा विवाह को बढ़ावा देने का प्रयास भी किया गया । खुद ब्रहामण होते हुए भी ब्राहमण के पाखंडवाद का विरोध किया गया ।उनका कहना था कि स्वार्थों और अज्ञानी पुरोहितों ने पुराणों जैसे ग्रंथो का सहारा लेकर हिन्दू धर्म का भ्रष्ट किया है।
स्वामी जी ने हिंदुओं को हीन , पतीत और कायर स्वाभाव से मुक्त करते हुए , उनको आत्मविश्वासी बनाने के लिए जोश भरा और उनको जागरूक बनाने के लिए बहुत सारे कार्य किये ।
वेलेंटाइन शिरोल नामक अंग्रेज ने ‘इण्डियन अरनेस्ट’ नामक अपने ग्रन्थ में स्वामीजी को ‘भारतीय अशान्ति का जनक’ कहा है। क्योंकि स्वामी जी ने अंग्रेजी संस्कृति का घोर विरोध किया । जिसकी वजह से अंग्रेजों को अपने मनसुबे के अंदर कामयाब होने मे समस्या हो रही थी।