दियासलाई बहुत काम की चीज है। इसके बिना आग जलाना संभव नहीं है। हालांकी अब आग जलाने के लिए अच्छे लाईटर भी आ चुके हैं। लेकिन चूल्हे पर लकड़ी जलाने के लिए आज भी दियासलाई का प्रयोग ही किया जाता है।
इसके पीछे कई वजहे हैं। जैसे दियासलाई काफी सस्ती आती है और यह लाइटर से तो बहुत ही सस्ती आती हैं। इस वजह से दियासलाई का प्रयोग बहुतायत मे किया जाता है।
पुराने जमाने मे जब दियासलाइयां नहीं थी तो लोग हमेशा आग को जलाय रखते थे । यदि आग बुझ जाती तो दूसरे स्थान से आग को मंगाया जाता था । प्रचीन काल के अंदर लोग चकमक पत्थर से रगड़कर आग पैदा करते थे । भारतिए मुनी लकड़ी की मदद से भी आग पैदा करते थे ।
लेकिन उस समय ऐसा कोई साधन नहीं था कि आग को तुरन्त जलाया जा सके ।प्राचीन रोम के निवासी लकड़ी की सलाइयों पर गंधक लगाकर रखते थे । यह सलाइयां इतनी छोटी होती थी कि इनको एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना काफी आसान था । लेकिन इनको रगड़कर आग पैदा नहीं की जा सकती थी ।
आज से 200 साल पूर्व अमेरिका और ब्रेटेन के अंदर सिरे पर गंधक लगी दियासलाइयां आती थी । इनके अंदर काफी बदबू निकलती थी । इस वजह से दुकानदार इनको दुकान के अंदर नहीं रखते थे । वरन इनको छोटे लड़के सड़क पर बेचा करते थे ।
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दियासलाई का आविष्कार
दियासलाई का आविष्कार कई स्टेप्स के अंदर हुआ था । 19 वीं शताब्दी के अंदर एक तुरन्त जलने वाली दियासलाई का आविष्कार किया गया था ।यहां पर क्या होता था कि दियासलाई एक रसायन से बनाई हुई होती थी । और उसको एक अम्ल ने डुबोकर रखा जाता था । जब दियासलाई को डिब्बें से
बाहर निकाला जाता तो वह जल उठती थी ।
फास्फोरस का आविष्कार
दियासलाई के अंदर फास्फोरस का प्रयोग किया जाता है। ब्रांड एक हैम्बर्ग एल्केमिस्ट था । जिसने सन 1669 ई के अंदर जब वह बेस धातुओं को सोने मे बदलने का प्रयास कर रहा था तो वह उनको सोने मे तो नहीं बदल सका लेकिन एक सफेद चमकिले पदार्थ का आविष्कार हो गया । जोकि अंधेरे के अंदर चमकता था ।हालांकि ब्रांड ने अपनी प्रक्रिया को गुप्त रखने की कोशिश की, फिर भी उन्होंने अपनी खोज जर्मन जर्मन केमिस्ट, क्रैफ्ट को बेच दी, जिन्होंने पूरे यूरोप में फॉस्फोरस प्रदर्शित किया।
दियासलाई का आविष्कार और रॉबर्ट बॉयल
सर रॉबर्ट बॉयल ने सल्फर-लेपित लकड़ी के एक अलग स्प्लिंटर के साथ फॉस्फोरस के साथ कागज का एक टुकड़ा लेपित किया। जब लकड़ी को कागज के माध्यम से खिंचा जाता था तो उसके अंदर लौ फूट पड़ती थी । उस समय फास्फोरस को प्राप्त करना बहुत मुश्किल था और फास्फोरस को अलग करने की बॉयल की विधि ब्रांड की तुलना में अधिक कुशल थी
दियासलाई का आविष्कार और वॉकर, सैमुअल जोन्स 1826
वॉकर ने एंटीमोनी सल्फाइड, पोटेशियम क्लोराइट, गम और स्टार्च से बने एक घर्षण मैच की खोज की थी । आप और हम जो दियासलाई का यूज करते हैं और उसकी डिबिया पर जो पर्दाथ का लेप होता है। घर्षण लेप है। हालांकि इन वैज्ञानिकों ने अपनी खोज को पेटेंट नहीं करवाया। सैमुअल जोन्स ने प्रदर्शन देखा और ‘लुइस्फर’ का उत्पादन शुरू किया, जो दक्षिणी और पश्चिमी अमेरिकी राज्यों के बाजारों में विपणन कर रहे थे।
चार्ल्स सौररी 1830
चार्ल्स सौररी इसने फास्फोरस का प्रयोग करके माचिस के अंदर सुधार किया । हालांकि फास्फोरस काफी घातक था । जिससे कई लोगों के अंदर विकार विकसित हो गया जिसको फोसी जबड़े कहा जाता है। फास्फोरस के कारखाने के अंदर काम करने वाले लोगों के अंदर हड्डियों की कई बिमारियां मिली।
दियासलाई का आविष्कार और यहोशू पुसी 18 9 2
पुसी ने मैचबुक का आविष्कार किया, हालांकि, उन्होंने पुस्तक के अंदर हड़ताली सतह रखी ताकि सभी 50 मैचों में एक बार आग लग जाए। डायमंड मैच कंपनी ने बाद में पुसी के पेटेंट खरीदे ।
डायमंड मैच कंपनी 1910
सफेद फॉस्फोरस युक्त माचिस के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने के लिए विश्वव्यापी धक्का के साथ, डायमंड मैच कंपनी को गैर-जहरीले माचिस के लिए पेटेंट मिला जो फॉफोरस के सेस्कुइसल्फाईड का इस्तेमाल करता था
डायमंड ने 28 जनवरी, 1 9 11 को अपना पेटेंट पैदा किया। कांग्रेस ने सफेद फॉस्फोरस मैचों पर एक निषिद्ध उच्च कर लगाने के कानून को पारित किया।ब्यूटेन लाइटर ने दुनिया के कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर माचिस के उपयोग को बदल दिया है, हालांकि माचिस को अभी भी बनाया और इस्तेमाल किया जाता है।
डायमंड मैच कंपनी, उदाहरण के लिए, सालाना 12 अरब से अधिक माचिस बनाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग 500 बिलियन माचिसों का सालाना उपयोग किया जाता है।
फास्फोरस से बिमार हुए थे कई लोग
1832 के अंदर माचिस तिल्ली बनाने के लिए फास्फोरस का यूज प्रारम्भ हुआ था । लेकिन इसके जलने पर इसका धुआं काफी विषैला सिद्व हुआ । जिसकी वजह से कई लोग बिमार पड़ने लगे । कारखानों के अंदर काम करने वाले लोगों को परिगलन रोग हो गया ।1888 के अंदर माचिस बनाने के कारखानों लंदन के अंदर महिलाएं भी काम करती थी । जिनको भी भयानक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ा था । उसके बाद सन 23 जून 1888 पेपर द लिंक मे मे पति फास्फोरस की वजह से बिमार लोगों की सहायता के लिए दान देने को कहा गया । जिसमे कई सामाजिक संगठनों ना दान दिया
उसके बाद मजदूरों ने सफेद फॉस्फोरस के प्रति नकारात्मक प्रचार किये जाने की वजह से हड़ताल करदी और फिर 1850 मे मजदूरों की समस्याओं को दूर करने के प्रयास किये गए ।एंटोन श्रॉटर वॉन क्रिस्टेलि की खोज हुई ।एक निष्क्रिय वातावरण में 250 डिग्री सेल्सियस पर सफेद फॉस्फरस को गर्म करने से लाल एलोट्रोपिक रूप उत्पन्न हुआ, जो हवा के संपर्क में नहीं आया। उसके बाद यह सुझाव दिया गया कि यह सफेद फॉस्फोरस की जगह पर यूज किया जा सकता है। हालांकि यह थोड़ा महंगा था । दो फ्रांसीसी रसायनज्ञ, हेनरी सावेन और एमिले डेविड कैहेन, 18 9 8 में साबित किया कि फॉस्फरस सेस्कुइसल्फाईड के अतिरिक्त यह मतलब था कि पदार्थ जहरीला नहीं था, और इसका प्रयोग माचिस बनाने मे आसानी से किया जा सकता था ।
2 9 जनवरी, 1 9 11 की न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार
ब्रिटिश कंपनी अलब्राइट और विल्सन फॉस्फोरस सेस्कुइसल्फाईड युक्त माचिस का व्यावसायिक रूप से उत्पादन करने वाली पहली कंपनी बनी थी ।
कम्पनी ने फॉस्फोरस सेस्कुइसल्फाईड का प्रयोग करके माचिस का निर्माण शूरू किर दिया । और इनको बाजार मे भी उतार दिया ।सफेद फास्फोरस का उपयोग जारी रखा गया, और इसके गंभीर प्रभावों से कई देशों ने इसका उपयोग प्रतिबंधित कर दिया। फिनलैंड ने 1872 में सफेद फास्फोरस के उपयोग को प्रतिबंधित किया, इसके बाद 1874 में डेनमार्क, 18 9 7 में फ्रांस, 18 9 8 में स्विट्ज़रलैंड और 1 9 01 में नीदरलैंड्स मे भी सफेद फास्फोरस के उपयोग पर प्रतिबंध लगादिया गया ।
नाइटेड किंगडम ने 31 दिसंबर 1 9 10 के बाद माचिस में सफेद फॉस्फोरस के उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए 1 9 08 में एक कानून पारित किया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने कानून पारित नहीं किया, बल्कि इसके बजाय सफेद फॉस्फोरस-आधारित मैचों पर 1 9 13 में “दंडनीय कर” भी लगाया गया ।
कनाडा ने उन्हें 1 9 14 में प्रतिबंधित कर दिया। भारत और जापान ने उन्हें 1 9 1 9 में प्रतिबंधित कर दिया; चीन ने 1 9 25 में उन्हें प्रतिबंधित कर दिया।
फॉस्फोरस पित का प्रयोग अब कानूनी रूप से वर्जित है। उसके बाद फॉस्फोरस सेस्क्किसल्फाइड का प्रयोग दियासलाई बनाने मे किया जाने लगा जोकि जहरीला भी नहीं था । उसके बाद दियासलाई का आविष्कार का नया वर्जन आया जिसका आजकल हम प्रयोग करते हैं।
दियासलाई के कारखाने
पहले दियासलाई के काम जैसे लकड़ी चिरना मशाला लगाना माचिस बनाना लेबल लगाना और दियासलाई पर मशाला लगाना जैसे सारे काम हाथों से ही किये जाते थे । लेकिन 18वीं सदी के बाद अधिकतर कारखानों के अंदर दियासलाई के सारे काम मसीनों से किये जाने लगे हैं। यह मसीने एक घंटे के अंदर 3000 बॉक्स तैयार कर देती हैं।शलाका बनाने के लिए पहले केवल चीड़ का प्रयोग किया जाता था लेकिन अब हर प्रकार की लकड़ी प्रयोग की जा सकती है। जो जल्दी सूखने की क्षमता रखती है।सबसे पहले तिल्ली को ऐमोनियम फॉस्फेट अम्ल से लेप करते हैं। उसके बाद पैराफिन मोम और फिर फास्फोरस का प्रयोग किया जाता है। इसमे रंग भी मिला दिया जाता है।
दियासलाई का भारत के अंदर निर्माण
भारत के अंदर पहला दियासलाई बनाने का कारखाना सन 1995 के अंदर अहमदाबाद के अंदर उसके बाद सन 1909 के अंदर दुसरा कारखाना कलकत्ता के अंदर खुला था ।उसके बाद 200 छोटे बड़े और कारखाने भी खुल गए ।स्वीडन की कम्पनी भी भारत के अंदर वेस्टर्न इंडिया मैच दियासलाई बनाने का काम करती है।1826 के अंदर भारत सरकार ने दियासलाई उधोग को संरक्षण भी प्रदान किया । भारत के अंदर केवल कुछ ही कारखाने ऐसे हैं। जिनके अंदर सारा काम मशीनों से होता है। बाकी कारखानों के अंदर काम मजदूरों के माध्यम से ही किया जाता है।
आपको दियासलाई का आविष्कार कैसे हुआ ,माचिस की तीली किस पेड़ की लकड़ी से बनती है, और माचिस का इतिहास पर जानकारी कैसी लगी कमेंट करके बताएं
This post was last modified on October 26, 2018