कहानी: गुडविन मसीह
सोनपुर नामक गांव में ननकू नाम का एक निर्धन किसान रहता था। वह बहुत मेहनतकश और परिश्रमी होने के साथ-साथ काफी दयालु और उदार प्रवृत्ति का था। दूसरों के सुख-दुःख में काम आना वह अपना परम कर्तव्य समझता था। इसीलिए गांव का प्रत्येक व्यक्ति उसे जरूरत से ज्यादार मान-सम्मान देता था।
ननकू के परिवार में उसकी पत्नी और दो बेटे थे। ननकू की दिली इच्छा थी कि उसके दोनों बेटे भी उसी के नक्शेकदम पर चलें, नेकी और ईमानदारी के रास्ते को अपनाएं। उसी के समान उनके अन्दर भी दूसरों के प्रति आदर और सेवाभाव हो। इसीलिए वह उन्हें हर वक्त यही शिक्षा दिया करता था कि ‘‘बेटा, दूसरों के सुख में ही अपना सुख निहित होता है। मनुष्य को सदैव एक-दूसरे के सुख-दुःख का भागीदार होना चाहिए। जो दूसरों के प्रति स्वयं के समान श्रद्धाभाव रखता और निःस्वार्थभाव से सबके सुख-दुःख में काम आता है, वास्तव में वही सच्चा मनुष्य कहलाने योग्य होता है।’’
कभी-कभी तो उसकी पत्नी भी ननकू के शिष्टाचार और उपदेशों से तंग आ जाती और झुंझलाकर उससे कहती, ‘‘स्वयं ने तो सारी जिन्दगी दुःखों और अभावों में जी है और अब बच्चों को भी यही शिक्षा देते रहते हैं। आखिर ऐसे खोखले आदर्षों और उपदेशों का ढिंढोरा पीटने से क्या फायदा ? जो जिन्दगी को बोझ बना दें ।
आप जिन्दगी भर दुःख भोग कर, हमेशा दूसरों के सुख-दुःख में काम आते रहे, खुद परेशानी उठाकर, हमेशा सबकी परेशानी दूर करते रहे, उससे आपको क्या लाभ मिला ? मैं तो तब मानती जब आज आपके ऊपर मुसीबत आयी तो कोई आपकी भी मदद करने आ जाता। इससे तो अच्छा होता कि आपने जो पैसा, धन-सम्पत्ति दूसरों की सहायता करने में समाप्त कर दिया। वह धन-सम्पत्ति हमारे और हमारे बच्चों के भविष्य के लिए रख छोड़ते तो आज इस तरह किसी का मुँह तो न ताकना पड़ता।’’
पत्नी के तानों को सुनकर ननकू एकदम तिलमिला जाता। फिर अपने आप पर काबू पाकर अपनी पत्नी को समझाते हुए कहता, ‘‘सावित्री, तुम्हारा कहना शायद ठीक हो। लेकिन मनुष्य को इतना भी स्वार्थी नहीं होना चाहिए। मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई किसी के लिए अगर कुछ करता है, तो उसे इस आशा के साथ नहीं करना चाहिए कि बदले में उससे भी उसको कुछ प्राप्त हो। नहीं तो उसके सब किए-धरे पर पानी फिर जाता है और वह भगवान की दृष्टि में स्वार्थी और खुदगर्ज साबित हो जाता है। और भगवान उसे अपनी आशीषों से वंचित कर देता है।’’
‘‘रहने दो….रहने दो….यह सब बातें कहानी-किस्सों में ही अच्छी लगती हैं। हकीकत में अब कुछ नहीं रह गया है।’’ उलाहना देते हुए उसकी पत्नी ने कहा।
पत्नी की बात पर वह निरुत्तर हो जाता और मन-ही-मन सोचता रहता कि वह उसे समझाए तो कैसे समझाए ?
समय का चक्र अपनी गति से घूम रहा था। देखते-ही-देखते ननकू को बुढ़ापे की सफेदी ने अपने आवरण में ढांप लिया। उसकी बूढ़ी हड्डियों ने काम करना बन्द कर दिया और वह पूरी तरह चारपाई की गिरफ्त में आ गया अर्थात लम्बी बीमारी का शिकार हो गया।
ननकू के बीमारी के बिस्तर पर लेट जाने से घर में आय के समस्त साधन बंद हो गए, जिससे घर की आर्थिक स्थिति डंवाडोल हो गई। नौबत यहां तक आ गयी कि घर में एक वक्त की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल होने लगा। क्योंकि जीवन भर मेहनत-मजदूरी करके उसने जो कुछ कमाया था, वह सब उसने अपने लड़कों को पढ़ाने-लिखाने व दूसरों की सहायता करने में खर्च कर दिया था। परिणामस्वरूप घर का प्रत्येक सदस्य अपनी तंगहाली और बदहाली को ही नहीं अपनी किस्मत को भी कोसने लगा और ननकू को बुरा-भला कहने लगा।
घर वालों का अपने प्रति कटु व्यवहार देखकर ननकू को काफी दुःख होता। लेकिन बेचारा किसी से कुछ कह नहीं पाता। सिर्फ अपना मन मसोस कर रह जाता। लेकिन जब बात उसकी बर्दाश्त से बाहर हो गयी तो एक दिन उसने अपने दोनों लड़कों और पत्नी को अपने पास बुलाया और उन्हें अपने पास बैठाकर समझाते हुए कहा, ‘‘मेरे बच्चों, मैं अच्छी तरह समझता हूं कि मैंने तुम लोगों के जीवन यापन या भविष्य के लिए कोई अचल सम्पत्ति या रुपया-पैसा नहीं रख छोड़ा, जिसकी वजह से तुम लोग मुझसे नाराज रहने लगे हो।
अब जबकि मेरा अन्तिम समय आ गया है। इस अन्तिम समय में मैं आखिरी बार तुम सबसे एक बात कहना चाहता हूं। मुझे विश्वास है कि आज मैं तुम लोगों से जो कुछ भी कहूंगा, उसको तुम सब मानोगे और अमल में लाओगे। इसलिए मेरी बात ध्यान से सुनो। बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को परिश्रमी, क्रियाशील और आत्मनिर्भर होना चाहिए। स्वयं ही अपने जीवन यापन का सहारा बनना चाहिए। क्योंकि जो लोग दूसरों पर निर्भर रहते हैं या दूसरों का सहारा ताकते हैं वह जीवन में कभी सफल नहीं हो पाते। मैं मानता हूं कि मैंने तुम लोगों को जीवन का कोई सुख नहीं दिया। लेकिन मैं तुम लोगों को एक ऐसा धन देकर जा रहा हूं, जिसके सहारे तुम दुनिया की हर चीज, हर सुख-सुविधा और ऐश और आराम आसानी से हासिल कर सकते हो। लेकिन परिश्रम तो तुम्हें फिर भी करना ही होगा।’’
ननकू की बात सुनकर उसके दोनों लड़के भड़क उठते और क्रोधित होकर कहने लगते, ‘‘आप हमेशा हमसे यही कहते रहते हैं कि आपने हमारे लिए धन रख छोड़ा है, आखिर वो धन है कहाँ ?’’
‘‘इस तरह क्रोधित और आक्रोशित होने की आवश्यकता नहीं है मेरे बच्चों।
धन-सम्पत्ति का मतलब सिर्फ रुपया-पैसा अथवा जमीन-जायदाद ही नहीं होता है। बल्कि इंसान के गुण-दोष, चरित्र और उसके आदर्श भी होते हैं। इंसान समाज में रहकर जो शिक्षार्जन, ज्ञानार्जन एवं सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल करता है वो रुपए-पैसे, धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद से कहीं बढ़कर होती है। मैंने तुम दोनों को पढ़ा-लिखाकर इस योग्य बना दिया है कि तुम लोग नौकरी करके आत्मनिर्भर बन जाओ और हंसी-खुशी से अपना जीवन यापन करो।’’
उस समय तो ननकू के लड़कों की समझ में ननकू की बात नहीं आयी। लेकिन कुछ समय पश्चात् जब ननकू की मृत्यु हो गयी तो घर की सारी जिम्मेदारी उसके दोनों लड़कों के कंधों पर आ पड़ी। घर की जिम्मेदारी कन्धों पर आते ही उनकी आँखें खुल गयीं और उन्होंने नौकरी की तलाश करनी शुरू कर दी।
जल्दी ही उन्हें उनकी योग्यता और पढ़ाई-लिखाई के मुताबिक अच्छी नौकरी मिल गई, जिससे उनके ऊपर आए दुःख के सारे बादल छंट गए और हँसी-खुशी उनका जीवन यापन होने लगा। तब उन्हें याद आया कि वास्तव में उनके पिता सच कहते थे कि शिक्षा से बड़ा कोई धन नहीं होता।
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चर्च के सामने, वीर भट्टी, सुभाषनगर,
बरेली 243001 (उत्तर प्रदेश)
This post was last modified on February 1, 2019
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बहुत सुन्दर कहानी, सराहनीय कल्पना, अत्यधिक शिक्षा और प्रोत्साहन देने वाली कहानी.