गुरूड पुराण अध्याय 7 garud puran adhyay 7 – सूत उवाच इति श्रुत्वा तु गरुडः कम्पितोऽश्वत्थपत्रवत्। जनानामुपकारार्थं पुनः पप्रच्छ केशवम्॥ १॥
सूतजीने कहा–एऐसा सुनकर पीपलके पत्तेको भाति कॉपते हुए गरुडजीने प्राणियोंके उपकारके लिये पुन भगवान् विष्णुसे पूछा- ॥ १॥ गरुड उवाच कृत्वा पापानि मनुजाः प्रमादाद् बुद्धितोऽपि वा । न यान्ति यातना याम्याः केनोपायेन कथ्यताम्॥ २॥ संसारार्णवमग्नानां नराणां दीनचेतसाम् । पापोपहतबुद्धीनां विषयोपहतात्मनाम्॥ ३॥ उद्धारार्थ वद् स्वामिन् पुराणार्थं विनिश्चयम् । उपायं येन मनुजाः सद्गतिं यान्ति माधव॥ ४॥
गरुडजीने कहा–हे स्वामिन् मनुष्य पाप कर्म करने के बाद भी यम की यातनाओं को ना प्राप्त करें ।संसाररूपी सागरमें डूबे हुए, दीन चित्तवाले, पापसे नष्ट बुद्धिवाले तथा विषयों के कारण दूषित आत्मा वाले इंसान के उद्धार के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं उसके बारे मे बताएं
हे माधव पुराणों के अंदर वर्णित कुछ उपायों के बारे मे बताएं जिससे कि इंसान की सद्धगति हो सके । इसके बारे मे बताएं ।
श्रीभगवानुवाच साधु पुष्टं त्वया ताक्ष्य मानुषाणां हिताय वै। शृणुष्वावहितो भूत्वा सर्वं ते कथयाम्यहम्॥ ५॥ दुर्गतिः कथिता पूर्वमपुत्राणां च पापिनाम् । पुत्रिणां धार्मिकाणां तु न कदाचित्खगेशवर॥ ६॥ पुत्रजन्मनिरोधः स्याद्यदि केनापि कर्मणा। तदा कश्चिदुपायेन पुत्रोत्पत्तिं प्रसाधयेत्॥ ७॥ हरिवंशकथां श्रुत्वा शतचण्डीविधानतः। भक्त्या श्रीशिवमाराध्य पुत्रमुत्पादयेत्सुधीः॥ ८॥
श्रीभगवान् बोले–हे ता्ष्य! मनुष्य के हित की कामना से तुमने यह अच्छी बात पूछी है । चलों मैं तुम्हें इसके बारे मे विस्तार से बताता हूं ।
हे खगेश्वर मैंने पुत्र रहित और पापी मनुष्य की यातना का वर्णन किया है। अब पुत्रवान और धार्मिक मनुष्यों की दुर्गति कभी भी नहीं होती है। यदि किसी इंसान को पुत्र पैदा नहीं हो रहा है तो हरिवंशपुराणको कथा सुनकर, विधानपूर्वक शतचण्डी यज्ञ करके तथा भक्तिपूर्वक शिव की आराधना करके पुत्र को प्राप्त करना चाहिए ।
पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मात्पितरं त्रायते सुतः। तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा॥ ९ ॥ एकोऽपि पुत्रो धर्मात्मा सर्व तारयते कुलम् । पुत्रेण लोकाञ्जयति श्रुतिरेषा सनातनी॥ १०॥
पुत्र पितरों को पुम् नामक नरकसे रक्षा करता है, और एक धर्मांतमा पुत्र पूरे कुल को तार देता है और पुत्र की मदद से इंसान तीनों लोकों को जीत लेता है।
इति वेदैरपि प्रोक्तं पुत्रमाहात्म्यमुत्तमम् । तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा मुच्यते पैतृकादूणात्॥ ११॥
पौत्रस्य स्पर्शनान्मर्त्यो मुच्यते च ऋणत्रयात् । लोकानत्येह्विः प्राप्तिः पुत्रपौत्रप्रपौत्रकैः ॥ १२॥
ब्राह्मोढापुत्रोन्नयति संगृहीतस्त्वयो नयेत्। एवं ज्ञात्वा खगश्रेष्ठ हीनजातिसुतांस्त्यजेत्॥ १३॥
इस प्रकार से वेदों ने भी पुत्र के महत्व के बारे मे बताया है। पुत्रका मुख देख करके मनुष्य पितृ-ऋणसे मुक्त हो जाता है॥ पौत्रका स्पर्श करके मनुष्य तीनों (देव, ऋषि, पितृ) ऋणोंसे मुकत हो जाता है ब्राह्म विवाह की विधि से ब्याही गयी पत्नी से उत्पन्न औरस पुत्र ऊर्ध्वगति प्राप्त कराता है । इसके अलावा संगृहीत पुत्र अधोगतिकी ओर ले जाता है। इस तरह से हीन जाति से पैदा स्त्री के पुत्र का त्याग देना चाहिए । ध्यान दें यह वर्ण के अनुसार है। यहां जाति नहीं वर्ण से मतलब है।
सवर्णेभ्यः सवर्णासु ये पुत्रा औरसाः खग। त एव श्राद्धदानेन पितृणां स्वर्गहेतवः॥ १४॥
श्राद्धेन पुत्रदत्तेन स्वर्यातीति किमुच्यते। प्रेतोऽपि परदत्तेन गतः स्वर्गमथो श्ृणु॥ १५॥
त्रैवोदाहरिष्येऽहमितिहासं पुरातनम् । और्ध्वदैहिकदानस्य परं माहात्म्यसूचकम्॥ १६॥
सवर्ण पुरुषा से सवर्णा स्त्रियों में जो पुत्र उत्पन्न होते हैं।इस तरह के पुत्र को औरस पुत्र के नाम से जाना जाता है और इनके श्राद्ध करने से ही पिता को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।इसके अलावा दूसरों के द्धारा किये जाने वाले श्राद्ध से भी पितर स्वर्ग चला जाता है इसके बारे मे मैं आपको एक प्राचीन इतिहास की बात बताने जा रहा हूं ।
पुरा त्रेतायुगे ताक्ष्य राजाऽऽसीद् बभ्रुवाहनः । महोदये पुरे रम्ये धर्मनिष्ठो महाबलः॥ १७॥
यज्वा दानपतिः श्रीमान् ब्रह्मण्यः साधुवत्सलः । शीलाचारगुणोपेतो दयादाक्षिण्यसंयुतः॥ १८॥
पालयामास धर्मेण प्रजाः पुत्रानिवौरसान् । क्षत्रधर्मरतो नित्यं स दण्ड्यान् दण्डयन्नृपः॥ १९॥
प्राचीन काल की बात है रमणीय नगर के अंदर एक धर्मपरायण और महाबलशाली राजा रहा करता था।वह यज्ञानुष्ठा नपरायण, दानियों में श्रेष्ठ, लक्ष्मी से सम्पन्न, ब्राहमण भक्त तथा साधु पुरुषों के प्रति अच्छा और शील और अनुराग पैदा करने वाला हुआ करता था।और यह स्वजनों के प्रति अपनत्व और इतर जनों के लिए दया रखने वाला होता है।यह राजा धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करता है और दंड देने योग्य लोगों को दंड भी देने का काम करता है।
स कदाचिन्महाबाहुः ससैन्यो मृगयां गतः। वनं विवेश गहनं नानावृक्षसमन्वितम्॥ २०॥
नानामृगगणाकीर्णं नानापक्षिनिनादितम् । वनमध्ये तदा राजा मृगं दूरादपश्यत॥ २९॥ तेन विद्धो मृगोऽतीव बाणेन सुदृढेन च। बाणमादाय स तस्य वनेऽदर्शनमेयिवान्॥ २२॥
एक बार राजा अपने सेना के साथ शिकार करने के लिए वन के अंदर गया । वह घने वन के अंदर गया और वहां पर उसे एक हिरण दिखा । उसके उपर उसने बाण चलाया तो हिरण वन के अंदर गायब हो गया ।
कक्षेण रूधिराद्रेण स राजाऽनुजगाम तम् । ततो मृगप्रसंगेन वनमन्यद्विविश सः॥ २३॥ ्षुतक्षामकण्ठो नृपतिः श्रमसन्तापमूच्छितः। जलाशयं समासाद्य साश्व एव व्यगाहत॥ २४॥ पपौ तदुदकं शीतं पदागन्धादिवासितम् । ततोऽवतीर्य सलिलाद्विश्रमो बभ्रुवाहनः॥ २५॥ ददर्श न्यग्रोधतरुं शीतच्छायं मनोहरम् । महाविटपविस्तीर्ण पक्षिसंघनिनादितम्॥ २६॥
हिरण का खून घास पर लगा था जिसकी मदद से राजा ने उस हिरण का पीछा किया ।उसके बाद वह किसी तरह से दूसरे वन मे चला गया ।उस समय राजा भूख प्यास से पिड़ित हो गया और एक जलाशय के पास गया और वहां पर घोड़े के साथ स्नान किया ।और वहां के शीतल जल का पान किया फिर एक पेड़ के नीचे आराम किया ।
मनोहर और शीतल छायावाले तथा पक्षिसमूहोंसे कूजित एक वटवृक्षको देखा॥ २५-२६॥
वनस्य तस्य सर्वस्य महाकेतुमिव स्थितम् । मूलं तस्य समासाद्य निषसाद महीपतिः॥ अथ प्रेतं ददर्शासौ क्षुत्तृड्भ्यां व्याकुलेन्द्रियम्। उत्कचं मलिनं कुब्जं निर्मांसं भीमदर्शनम्॥
जब राजा उ पेड़ के नीचे आराम कर रहा था तो राजा ने वहां पर देखा भूख और प्याससे व्याकुल इन्द्रियोंवाले, ऊपरकी ओर उठे हुए बालों वाले, अत्यन्त मलिन, कुबड़े और मांसरहित एक प्रेत को वहां पर देखा ।
तं दृष्ट्वा विकृतं घोरं विस्मितो बश्चुवाहनः। प्रेतोऽपि दृष्ट्वा तं घोरामटवीमागतं नृपम्॥ २९॥ समुत्सुकमना भूत्वा तस्यान्तिकमुपागतः। अब्रवीत् स तदा ताश्ष्य प्रेतराजो नृपं वचः॥ ३०॥ प्रेतभावो मया त्यक्तः प्राप्तोऽस्मि परमां गतिम् । त्वत्संयोगान्महाबाहो जातो धन्यतरोऽस्म्यहम्॥ ३१॥
बभ्रुवाहन उस प्रेत को देखकर काफी अधिक चकित हो गया ।और वह प्रेत भी घने जंगल के अंदर आये हुए राजा को देखकर काफी अधिक चकित हो गया ।उसके बाद प्रेत राजा के पास आया और कहा हे राजन आपके संबंध से मेरा प्रेत भाव छूट गया है और मैं अब परम शांति को प्राप्त हो गया हूं ।
कृष्णवर्ण करालस्य प्रेतत्वं घोरदर्शनम् । केन कर्मविपाकेन प्राप्तं ते बह्ृमङ्घलम्॥ ३२॥ प्रेतत्वकारणं तात ब्रूहि सर्वमशेषतः। कोऽसि त्वं केन दानेन प्रेतत्वं ते विनश्यति॥ ३३॥
उसके बाद राजा ने उस प्रेत से कहा कि हे प्रेत राज किस कर्म की वजह से तुमने प्रेत शरीर को प्राप्त किया अपने साथ हुई इस तरह की घटना के बारे मे हमें विस्तार से बताओं मैं इसको सुनना चाहता हूं ।और किस दान की वजह से तुम्हारा प्रेततत्व नष्ट हो गया । इसके बारे मे जरा हमें भी बताओं ।
प्रेत उवाच कथयामि नृपश्रेष्ठ सर्वमेवादितस्तव । प्रेतत्वकारणं श्रुत्वा दयां कर्तु त्वम्हसि॥ ३४॥ वैदिशं नाम नगरं सर्वसम्पत्समन्वितम्। नानाजनपदाकीर्णं नानारत्नसमाकुलम्॥ ३५॥ हर्म्यप्रासादशोभाढ्यं नानाधर्मसमन्वितम् । तत्राऽहं न्यवसं तात देवार्चनरतः सदा॥ ३६॥
प्रेतने कहा–हे श्रेष्ठ राजन्! मैं आपको आरम्भ से इसके बारे मे बताता हूं । आप इसके कारण को जानकर इसको दूर करने का प्रयास करें । वैदिश नामका एक नगर था वहां पर सब प्रकार की संपतियां हुआ करती थी और सभी प्रकार से वह नगर समृद्ध हुआ करता था । मैं उस नगर के अंदर रहता था और देव पूजा किया करता था।
वैश्यो जात्या सुदेवोऽहं नाम्ना विदितमस्तु ते । हव्येन तर्पिता देवाः कव्येन पितरस्तथा ॥ ३७॥ विविधैर्दानयोगैश्च विप्राः सन्तर्पिता मया । दीनान्धकृपणेभ्यश्च दत्तमन्नमनेकधा॥ ३८॥
आपको यह पता होना चाहिए कि मैं एक वैश्य जाति के अंदर पैदा हुआ था ।मेरा नाम सुदेव था । और मैंने देवताओं की पूजा की पितरों का तर्पण किया और दीन हीन और गरीबों को भी अनेक तरह से दान दिया था।मतलब यही है कि मैंने कई सारे जरूरतमंदों की मदद की थी।
तत्सर्वं निष्फलं राजन् मम दैवादुपागतम् । यथा मे निष्फलं जातं सुकृतं तद् वदामि ते॥ ३९॥ ममैव सन्ततिर्नास्ति न सुहृन्न च बान्धवः। न च मित्रं हि मे ताटूक् यः कुर्यादौर्ध्वदैहिकम्॥ ४०॥ यस्य न स्यान्महाराज श्राद्धं मासिकषोडशम् । प्रेतत्वं सुस्थिरं तस्य दत्तैः श्राद्धशतैरपि॥ ४९॥
हे राजन्! मेरा यह सारा सत्कर्म मेरे दुर्दैवसे निष्फल हो गया ।इसका कारण यह था कि मेरा कोई बांधव नहीं था मेरी कोई संतान नहीं थी और मेरा कोई मित्र नहीं था। हे महाराज! (मृत्युके अनन्तर) जिस व्यक्तिके उद्देश्यसे षोडश मासिक श्राद्ध नहीं दिये जाते । उनका प्रेतत्व स्थिर ही रहता है और वह दूर नहीं होता।
त्वमौर्ध्वदैहिकं कृत्वा मामुद्धर महीपते । वर्णानां चैव सर्वेषां राजा बन्धुरिहोच्यते॥ ४२॥ तन्मां तारय राजेन्द्र मणिरत्नं ददामि ते। यथा मे सद्गतिभूयात् प्रेतयोनिश्च गच्छति॥ ४३॥ यथा कार्य त्वया वीर मम चेदिच्छसि प्रियम् । क्षुधातृषादिभिुःखैः प्रेतत्वं दुःसहं मम॥
हे महाराज आप मेरा कर्मकांड करके मेरा उद्धार करने का प्रयास करें । क्योंकि इस लोक के अंदर राजा को ही सब वर्णों का बंधु कहा जाता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।मैं आपको मणिरत्न देता हूं । आप यदि मेरा हित चाहते हैं तो फिर आपको इस तरह से करना होगा कि मेरी प्रेतयोनी से मुक्ति हो सके ।आपको कुछ ऐसा करना चाहिए । जिससे कि प्रेतयोनी से मुझे छूटकारा मिल सके । राजन आपको यह सब करना चाहिए । जिससे कि मेरा कल्याण हो सके ।
स्वादूदकं फलं चास्ति वनेऽस्मिञ्छीतलं शिवम् । न प्राप्नोमि क्षुधातोऽहं तृषार्तो न जलं क्वचित्॥ ४५॥ यदि मे हि भवेद्राजन् विधिर्नारायणो महान् । तदग्रे वेदमन्त्रैश्च क्रिया सर्वोर्ध्वदेहिकी ॥ ४६॥ तदा नश्यति मे नूनं प्रेतत्वं नाऽत्र संशयः। वेदमन्त्रास्तपोदानं दया सर्वत्र जन्तुषु॥ ४७॥ सच्छास्त्रश्रवणं विष्णोः पूजा सज्जनसंगतिः। प्रेतयोनिविनाशाय भवन्तीति मया श्रुतम्॥ ४८॥
इस वन के अंदर कई तरह के फल हैं और जल भी है लेकिन उसके बाद भी मैं भूख और प्यास से व्याकूल हूं । मुझे जल और फल की प्राप्ति नहीं हो रही है।हे राजन्! यदि मेरे उद्देश्यसे यथाविधि नारायणबलि की जाय, उसके बाद वेदमन्त्रोंके द्वारा मेरी सभी और्ध्वदैहिक क्रिया की जाए तो मेरा कल्याण हो जाएगा ।
मैंने सुन रखा है कि वेदके मन्त्र, तप, दान और सभी प्राणियोंमें दया, सत्-शास्त्रोंका श्रवण, भगवान् विष्णु की पूजा और सज्जनों की संगति आदि सभी प्रेत योनी से मुक्ति के लिए होता है।
अतो वक्ष्यामि ते विष्णुपूजां प्रेतत्वनाशिनीम्।
सुवर्णद्वयमानीय सुवर्ण न्यायसंचितम् । तस्य नारायणस्यैकां प्रतिमां भूप कल्पयेत्॥ ४९॥
पीतवस्त्रयुगच्छन्नां सर्वाभरणभूषिताम् । स्नापितां विविधैस्तोयैरधिवास्य यजेत्ततः॥ ५०॥
इसलिए मैं आपको प्रेत को नष्ट करने वाली विष्णू पूजा के बारे मे कहूंगा ।हे राजन्! न्यायोपार्जित दो सुवर्ण भारका सोना लेकर उससे नारायणको एक प्रतिमा बनवाये।उसके बाद इनको विधि पूर्वक स्नान करवाएं । और उसके बाद पीले वस्त्र अर्पित करें ।उसके बाद अलंकार से सुशोभित करें । और उसके बाद पूजा करें ।
पूर्वे तु श्रीधरं तस्य दक्षिणे मधुसूदनम् । पश्चिमे वामनं देवमुत्तरे च गदाधरम्॥ ५१॥
मध्ये पितामहं चैव तथा देवं महेश्वरम् । पूजयेच्च विधानेन गन्धपुष्पादिभिः पृथक् ॥ ५२॥
ततः प्रदक्षिणीकृत्य वह्नौ सन्तर्प्य देवताः। घृतेन दध्ना क्षीरेण विश्वेदेवांश्च तर्पयेत्॥ ५३॥
उस प्रतिमा के पूर्वभाग में श्रीधर, दक्षिणमें मधुसूदन और पश्चिम मे वामन उत्तरमें गदाधर, मध्यमें पितामह ब्रह्मा तथा महादेव शिव को स्थापित करें और उसके बाद उनकी अलग अलग पूजा करें ।उसके बाद प्रदक्षिणा और अग्नि मे हवन करें ।देवताओं को तृप्त करके क्रिया करें ।
ततः स्नातो विनीतात्मा यजमानः समाहितः । नारायणाग्रे विधिवत्स्वां क्रियामोर्ध्वदैहिकीम्॥ ५४॥
आरभेत यथाशास्त्रं क्रोधलोभविवर्जितः। कुर्याच्छाद्धानि सर्वाणि वृषस्योत्सर्जनं तथा॥ ५५॥
ततः पदानि विप्रेभ्यो दद्याच्यैव त्रयोदश । शय्यादानं प्रदत्त्वा च घटं प्रेतस्य निर्वपेत्॥ ५६॥
समाहित चित्तवाला नौजवान स्नान करने के बाद नारायण के आगे विनती करके अर्थदैहिक क्रिया को आरम्भ करना चाहिए ।उसके बाद क्रोध और लोभ से रहित होने के बाद सभी तरह के श्राद्धों को करना चाहिए ।तदनन्तर ब्राह्मणोंको तेरह पददान करें और श्श्या का दान करें।
कथं प्रेतघटं कुर्याद् दद्यात् केन विधानतः। ब्रूहि सर्वानुकम्पार्थं घटं प्रेतविमुक्तिदम्॥ ५७॥
उसके बाद राजा ने कहा हे प्रेत किस विधानमे प्रेतघटका निर्माण करना चाहिये और किस विधानसे उसका दान सातवाँ दान करना चाहिए । प्रेत को मुक्ति दिलाने वाले कार्यों के बारे मे वर्णन करो ।
प्रेत उवाच साधु पृष्टं महाराज कथयामि निबोध ते। प्रेतत्वं न भवेद्येन दानेन सुदृढेन च॥५८॥ दानं प्रेतघटं नाम सर्वाऽशुभविनाशकम् । दुर्लभं सर्वलोकानां दुर्गतिक्षयकारकम्॥ ५९॥ सन्तप्तहाटकमयं तु घटं विधाय ब्रह्मेशकेशवयुतं सह लोकपालैः। क्षीराज्यपूर्णविवरं प्रणिपत्य भक्त्या विप्राय देहि तव दानशतैः किमन्यैः ॥ ६०॥
उसके बाद प्रेत ने कहा हमे महाराज जिस सुद्रढ दान से प्रेतत्व नहीं होता है अब मैं तुमको उसके बारे मे बताने वाला हूं ।सुने प्रेतघटक दान सभी प्रकार के अमंगलों का नाश करने वाला ।सभी लोकोंमें दुर्लभ और दुर्गतिको नष्ट करनेवाला है । और ब्रह्मा, शिव तथा विष्णुसहित लोकपालोंसे युक्त और उसके अंदर दूध घीआदि से आपको अच्छी तरह से भर देना होगा और उसके बाद विनय पूर्वक दान करना होगा ।उसके बाद तुम्हें किसी तरह के सैकड़ों दानों की जरूरत नहीं है।
ब्रह्मा मध्ये तथा विष्णुः शङ्करः शङ्करोऽव्ययः । प्राच्यादिषु च तत्कण्ठे लोकपालान् क्रमेण तु॥ ६९॥ सम्पूज्य विधिवद् राजन् धूपैः कुसुमचन्दनैः। ततो दुग्धाऽऽज्यसहितं घटं देयं हिरण्मयम्॥ ६२॥
सर्वदानाधिकं चैतन्महापातकनाशनम् । कर्तव्यं श्रद्धया राजन् प्रेतत्वविनिवृत्तये॥ ६३॥
हे राजन्! उस घटके मध्यमें ब्रह्मा, विष्णु तथा कल्याण करने वाले शंकर भगवान की स्थापना करें । उसके बाद और घट के पूर्व दिशाओं के अंदर लोकपालोंका आवाहन करके उनको धूप, पुष्प, चन्दन के साथ पूजा करके दूध और घी के साथ दान करना चाहिए ।प्रेतत्व के नष्ट करने के लिए महादानों मे से एक दान यह भी करना चाहिए।
संजल्पतस्तस्य प्रेतेन सह काश्यप। सेनाऽऽजगामानुपदं इस्त्यश्वरथसंकुला॥ ६४॥
ततो बले समायाते दत्त्वा राज्ञे महामणिम्। नमस्कृत्य पुनः प्रार्थ्य प्रेतोऽदर्शनमेयिवान्॥ ६५॥
उसके बाद यह कहा गया कि जब राजा प्रेत के बात कर रहा था तो राजा की सेना पीछे से आ गई और फिर प्रेत ने राजा को महामणि दी और फिर राजा को प्रणाम करने के बाद वह प्रेत वहां से गायब हो चुका था।
तस्माद् वनाद् विनिष्क्रम्य राजापि स्वपुरं ययौ। स्वपुरं च समासाद्य तत्सर्व प्रेतभाषितम्॥ ६६॥
चकार विधिवत् पक्षिन्नौरध्वदैहिकजं विधिम् । तस्य पुण्यप्रदानेन प्रेतो मुक्तो दिवं ययौ॥ ६७॥ हे पक्षिन्!
उसके बाद राजा भी अपने जंगल से निकलकर अपने महल के अंदर चला गया और उसके बाद उसने नगर मे आकर उस प्रेत के लिए सभी तरह के अनुष्ठान किये और उसके बाद वह प्रेत प्रेत योनी से मुक्त हो गया और उसके बाद वह स्वर्ग चला गया ।
जब दूसरेके द्वारा दिये हुए श्राद्धसे प्रेतको सद्गति हो गयी तो फिर पुत्र के द्धारा किये जाने वाले श्राद्ध से पूर्वज की सद्धगति कैसे नहीं हो सकती है ? आप इस बात को समझ सकते हैं। इस तरह से गरूड़ पुराण का 7 वां अध्याय समाप्त हुआ ।
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