गुरूड पुराण अध्याय 10 garud puran adhyay 10 –
देहदाहविधानं च वद सुकृतिनां विभो। सती यदि भवेत्पत्नी तस्याश्च महिमां वद॥ १॥
गरुडजी बोले-हे विभो अब हमें पुण्यात्मा पुरूष के दाह संस्कार के बारे मे बताएं और यदि पत्नी सति हो तो उसकी महिमा का वर्णन करें।
श्रीभगवानुवाच श्रृणु ताक्ष्य॑प्रवक्ष्यामि सर्वमेवौर्ध्वदैहिकम् । यत्कृत्वा पुत्रपौत्राश्च मुच्यन्ते पैतृकादूणात्॥ २॥ किं तत्तैर्बहुभिर्दानैः पित्रोरन्त्येष्टिमाचरेत् । तेनाग्निष्टोमसदूशं पुत्रः फलमवाप्नुयात्॥ ३॥
श्रीभगवानने कहा हे ताक्ष्य! जिन और्ध्व दैहिक कृत्योंको करनेसे पुत्र और पौत्र पितृ-ऋणसे मुकत हो जाते हैं ,अधिक दान देने से कोई लाभ नहीं है। पिता और माता की अत्यौंष्टिक क्रियाओं को सही तरह से करना जरूरी होता है।
तदा शोकं परित्यज्य कारयेन्मुण्डनं सुतः। समस्तबान्धवैर्यु्तः सर्वपापविमुक्तये॥ ४॥ मातापित्रोर्मतौ येन कारितं मुण्डनं न हि। आत्मजः स कथं ज्ञेयः संसारार्णवतारकः ॥ ५॥ अतो मुण्डनमावश्यं नखकक्षविवर्जितम्। ततः सबान्धवः स्नात्वा धौतवस्त्राणि धारयेत्॥ ६॥ सद्यो जलं समानीय ततस्तं स्नापयेच्छवम्। मण्डयेच्चन्दनैः स्त्रग्भिर्गङ्कामृत्तिकयाऽथवा॥ ७॥ नवीनवस्त्रैः सञ्च्छाद्य तदा पिण्डं सदक्षिणम् । नामगोत्रं समुच्चार्य सङ्कल्पेनापसव्यतः॥ ८॥ मृत्युस्थाने शवो नाम तस्य नाम्ना प्रदापयेत् । तेन भूमिभवित्तुष्टा तदधिष्ठातृदेवता॥ ९॥
माता पिता की मौत होने के बाद पुत्रों को सभी तरह का शौक का परित्याग करने के बाद मुंडन करवाना चाहिए ।जो पिता के मौत पर मुंडन नहीं करवाता है वह माता पिता को तारने वाला पुत्र कैसे समझा जाए ।इसके बाद समस्त बान्धवों के सहित स्नान करके धौत वस्त्र धारण करे।
उसके बाद जल लाकर शव को स्नान करवाना चाहिए ।चन्दन अथवा गंगाजी से शव को लेप करना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं और यही आपके लिए सही होगा ।
उसके बाद नविन वस्त्र को धारण करना चाहिए । और पूरे विधि विदान से पिंडदान करना चाहिए ।मृत्युके स्थानपर ‘शव’ नामक पिण्ड को मृत व्यक्तिके नाम-गोत्र से प्रदान करे। ऐसा करनेसे भूमि और भूमि के अधिष्ठातृ देवता प्रसन्न हो जाते हैं।
द्वारदेशे भवेत्पान्थस्तस्य नाम्ना प्रदापयेत् । तेन नैवोपघाताय भूतकोटिषु दुर्गताः॥ १०॥ ततः प्रदक्षिणां कृत्वा पूजनीयः स्नुषादिभिः । स्कन्धः पुत्रेण दातव्यस्तदाऽन्यैर्बान्धवैः सह॥ ११॥ धृत्वा स्कन्धे स्वपितरं यः श्मशानाय गच्छति । सोऽश्वमेधफलं पुत्रो लभते च पदे पदे॥ १२॥
इसके पश्चात् द्वारदेशपर ‘पान्थ’ नामक पिण्ड मृतक के नाम और गोत्र के नाम के आधार पर देना चाहिए ।ऐसा करने से मरे हुए प्राणी को भूत प्रेत आदि बाधा पैदा नहीं करते हैं। वरना यह प्राणी के सद्धगति के अंदर बाधा पैदा करते हैं।
इसके बाद पुत्र वधू आदि शव को प्रदक्षिणा करके उसको पूजा करें।और जो अपने पिता को कंधे पर धारण करके श्मसान को जाता है वह पग पग पर अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त करता है।
नीत्वा स्कन्धे स्वपृष्ठे वा सदा तातेन लालितः । तदैव तदूणान्मुच्येन्मृतं स्वपितरं वहेत्॥ १३॥ ततोऽर्धमार्गे विश्रामं सम्मार्ज्याभ्युक्ष्य कारयेत् । संस्नाप्य भूतसंज्ञाय तस्मै तेन प्रदापयेत्॥ १४॥ पिशाचा राक्षसा यक्षा ये चान्ये दिक्षु संस्थिताः । तस्य होतव्यदेहस्य नैवायोग्यत्वकारकाः॥ १५॥
पिता अपने पुत्र को कंधे आदि पर बैठाकर लालपालन करता है। और जब पुत्र इस ऋणसे तभी मुक्त हो सकता है जब वह अपने पिता को कंधे पर ले जाता है ।इसके बाद आधे मार्गमें पहुँचकर भूमिका मार्जन और प्रोक्षण करके शवको विश्राम कराये और उसे स्नान कराकर भूतसंज्ञक पितरको गोत्र नामादिके द्वारा “ भूत’ नामक पिण्ड प्रदान करे।ऐसा करने से अन्य दिशा के अंदर मौजूद भूत पिशाच आदि किसी भी तरह की बाधा पैदा नहीं करते हैं।
ततो नीत्वा श्मशानेषु स्थापयेदुत्तरामुखम्। तत्र देहस्य दाहार्थं स्थलं संशोधयेद्य॒था॥ १६॥ सम्मार्ज्य भूमिं संलिप्योल्लिख्योदधृत्य च वेदिकाम्। अभ्युक्ष्योपसमाधाय वहिनं तत्र विधानतः॥ १७॥ पुष्पाक्षतैरथाभ्यर्च्यं देवं क्रव्यादसंज्ञकम् । लोमभ्यस्त्वनुवाकेन होमं कुर्याद्य॒थाविधि॥ १८॥ त्व॑ भूतभृज्जगद्योनिस्त्वं भूतपरिपालकः। मृतः सांसारिकस्तस्मादेनं त्वं स्वर्गतिं नय॥ १९॥ इति सम्प्रार्थयित्वाऽग्निं चितां तत्रैव कारयेत्। श्रीखण्डतुलसीकाष्ठैः पलाशाश्वत्थदारुभिः॥
उसके बाद श्मसान के अंदर जाकर उत्तराभिमुख को स्थापित करें और उसके बाद भूमी का संशोधन करें और भूमी का समार्जन और उल्लेख करें । मतलब भूमी पर तीन उभरी हुई रेखाएं स्थापित करें ।उन रेखाओंसे उभरी हुई मिट्टीको उठाकर ईशान दिशामें फॅंककर उस वेदिकाको जलसे प्रोक्षित करके उसमें विधि-विधानपूर्वक आग की स्थापना करनी चाहिए। आप इस बात को समझ सकते हैं।
अग्नि की आपको उसके बाद प्रार्थना करनी चाहिए कि हे तुम प्राणियों को धारण करने वाले और उनको पैदा करने वाले उनका पालन करने वाले यह सांसारिक मनुष्य मर चुका है । तुम इसको स्वर्ग लेकर जाओ ।ग्निको प्रार्थना करके वहीं चन्दन, तुलसी, पलाश और पीपलकी लकड़ियों से चिता का निर्माण करना चाहिए ।
चितामारोप्य तं प्रेतं पिण्डौ द्वौ तत्र दापयेत्।
चितायां शवहस्ते च प्रेतनाम्ना खगेश्वर । चितामोक्षप्रभृतिकं प्रेतत्वमुपजायते ॥ २१॥
केऽपि तं साधकं प्राहुः प्रेतकल्पविदो जनाः। चितायां तेन नाम्ना वा प्रेतनाम्नाऽथवा करे॥ २२॥
उसके बाद उस शव को चिता पर रख देना चाहिए । और उसके बाद वहां पर दो तरह के पिंड को प्रदान करना चाहिए ।एक पिंड को चिता मे जला देना चाहिए । और दूसरा शव के हाथ मे होना चाहिए । ऐसा करने से शव मेप्रेतत्व आ जाता है।
इत्येवं पञ्चभिः पिण्डैः शवस्याहुतियोग्यता । अन्यथा चोपघाताय पूर्वोक्तास्ते भवन्ति हि॥ २३॥ प्रेते दत्त्वा पञ्च पिण्डान् हुतमादाय तं तृणैः। अग्निं पुत्रस्तदा दद्यान्न भवेत्पञ्चकं यदि॥
इस प्रकार से पांच पिंड को प्रदान करने से शव की आहूती योग्यता सम्पन्न होती है।श्मशानमें स्थित पूर्वोक्त पिशाच, राक्षस तथा यक्ष आदि उसकी आहुति-योग्यताके उपघातक होते हैं।और यदि पंचक ना हो तो पुत्र को अग्नि प्रदान करनी चाहिए ।
पञ्चकेषु मृतो यस्तु न गतिं लभते नरः। दाहस्तत्र न कर्तव्यः कृतेऽन्यमरणं भवेत्॥ २५॥ आदौ कृत्वा धनिष्ठार्धमेतन्नक्षत्रपञ्चकम् । रेवत्यन्तं न दाहेऽर्हं दाहे च न शुभं भवेत्॥ २६॥ गृहे हानिभवित्तस्य ऋक्षेष्वेषु मृतो हि यः। पुत्राणां गोत्रिणां चापि कश्चिद्विघ्नः प्रजायते॥ २७॥ अथवा ऋक्षमध्ये हि दाहः स्याद्विधिपूर्वकः। तद्विधिं ते प्रवक्ष्यामि सर्वदोषप्रशान्तये॥ २८ ॥ शवस्य निकटे ताक्ष्य निक्षिपेत् पुत्तलास्तदा। दर्भमयांश्च चतुर ऋक्षमन्त्राभिमन्त्रितान्॥ २९॥ तप्तहेमं प्रकर्तव्यं वहन्ति ऋक्षनामभिः। ‘प्रेताजयत’ मन्त्रेण पुनर्होमस्तु सम्पुटैः॥ ३०॥
आपको बतादें कि पंचकम मे जिस मनुष्य की मौत होती है उसकी सदगति नहीं होती है। इसलिए उसका दाह संस्कार सही उपायों के बिना नहीं किया जाना चाहिए ।इसमे मृत इंसान दाह योग्य नहीं होता है।और इसका दाह संस्कार करने से शुभ परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं।
इन नक्षत्रों मे यदि कोई मरता है तो उनके यहां पर हानि होती है और विध्वन पैदा होता है इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
पंचकमें भी दाहविधिका की मदद से दाह संस्कार होता है तो पंचकमें भी दाहविधिका के बारे मे मैं आपको अब बताने वाला हूं ।कुशसे निर्मित चार पुत्तलोंको नक्षत्र-मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके शवके समीपमें स्थापित करना चाहिए । उसके बाद वहां पर स्वर्ण रखना चाहिए और फिर मंत्रों के नाम से होम करना चाहिए ।“प्रेता जयता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु’ आदि का प्रयोग करना चाहिए ।
ततो दाहः प्रकर्तव्यस्तैशच पुत्तलकैः सह । सपिण्डनदिने कुर्यात्तस्य शान्तिविधिं सुतः॥ ३१ ॥
तिलपात्रं हिरण्यं च रूप्यं रत्नं यथाक्रमम् । घृतपूर्णं कांस्यपात्रं दद्याददोषप्रशान्तये॥ ३२॥
एवं शान्तिविधानं तु कृत्वा दाहं करोति यः। न तस्य विघ्नो जायेत प्रेतो याति परां गतिम्॥ ३३॥
एवं पञ्चकदाहः स्यात् तद्विना केवलं दहेत् । सती यदि भवेत्पत्नी तया सह विनिर्दहेत्॥ ३४॥
पंचकदोष की शान्ति के लिये कई काम किये जाते हैं। इसके लिए तिल से भरा पात्र और घृतपूर्ण कांस्यपात्रका दान करना चाहिये । और उसके बाद जो शव का दाह करता है उसको किसी भी तरह की बाधा पैदा नहीं होती है। और प्रेत की सदगति भी हो जाती है।
पतिव्रता यदा नारी भर्तुः प्रियहिते रता। इच्छेत्सहैव गमनं तदा स्नानं समाचरेत्॥ ३५॥ कुंकुमाञ्जनसदस्त्रभूषणै भूषितां तनुम् । दानं दद्याद् द्विजातिभ्यो बन्धुवर्गेभ्य एव च॥ ३६॥ गुरुं नमस्कृत्य तदा निर्गच्छेन्मन्दिराद्वहिः। ततो देवालयं गत्वा भवत्या तं प्रणमेद्धरिम्॥ ३७॥ समर्प्याभरणं तत्र श्रीफलं परिगृह्य च। लज्जां मोहं परित्यज्य श्मशानभवनं व्रजेत्॥ ३८॥ तत्र सूर्य॑ नमस्कृत्य परिक्रम्य चितां तदा। पुष्पशय्यां तदाऽऽरोहेन्निजाङ्के स्वापयेत्पतिम्॥ ३९॥ सखिभ्यः श्रीफलं दद्याद्दाहमाज्ञापयेत्ततः। गङ्गास्नानसमं ज्ञात्वा शरीरं परिदाहयेत्॥ ४०॥
यदि अपने पति की मौत के बाद नारी यदि अपने पति के साथ परलोक गमन करना चाहे तो पति की मौत होने के बाद खुद स्नान करें और अपने शरीर को कुंकुम, अंजन, सुन्दर वस्त्राभूषणादिसे अलंकृत करे । और ब्रह्रामण आदि को दान देना चाहिए । उसके बाद उसके बाद गुरूजनों को प्रणाम करें और उसके बाद मंदिर के अंदर जाए और वहां पर भगवान विष्णु को प्रणाम करे ।वहाँ अपने आभूषणोंको समर्पित करके वहाँसे श्रीफल लेकर लज्जा और मोह का परित्याग करके श्मसान भूमी के अंदर जाए । और यहां से तब वहाँ सूर्यको नमस्कार करके, चिताकी परिक्रमा करके पुष्पशय्यारूपी चितापर चढ़े और अपने पतिको अपनी गोदमें लिटाये।
उसके बाद श्री फल अपनी सखियों को प्रदान करें । और उसके बाद आग को गंगाजल मानकर अपने शरीर को जलाए।
न दहेद् गर्भिणी नारी शरीरं पतिना सह । जनयित्वा प्रसूतिं च बालं पोष्य सती भवेत्॥ ४१॥
नारी भर्तारमासाद्य शरीरं दहते यदि। अग्निर्दहति गात्राणि नैवात्मानं प्रपीडयेत्॥ ४२॥
दह्यते ध्मायमानानां धातूनां च यथा मलः। तथा नारी दहेत्पापं हुताशे ह्यमृतोपमे॥ ४३॥
दिव्यादौ सत्ययुक्तश्च शुद्धो धर्मयुतो नरः। यथा न दह्यते तप्तलौहपिण्डेन कर्हिचित्॥ ४४॥
तथा सा पतिसंयुक्ता दह्यते न कदाचन । अन्तरात्मात्मना भर्तुर्मृतस्यैकत्वमाप्नुयात्॥ ४५॥
गर्भिणी स्त्री को कभी भी अपने पति के साथ सती नहीं होना चाहिए । यदि वह सती होना चाहती है तो उसे पहले अपने बालक को जन्म देना चाहिए और उसके बाद अपने बालक का पालन पोषण करना चाहिए । और उसके बाद ही सती होना चाहिए ।
यदि स्त्री अपने मृत पतिके शरीरको लेकर अपने शरीरका दाह करती है आग आदि उसके शरीर मात्र को जलाते हैं उसकी आत्मा को कोई पीड़ा नहीं होती है। जिस प्रकार से आग के अंदर जलने के बाद सोना शुद्ध हो जाता है उसकी प्रकार चिता की आग मे जलने पर स्त्री के सारे पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं।
जिस प्रकार सत्यपरायण धर्मात्मा पुरुष शपथके समय तपे हुए लोहपिण्डादिको लेनेपर भी नहीं जलता, उसी प्रकार चितापर पतिके शरीरके साथ संयुक्त वह नारी भी कभी नहीं जलती है। उसकी आत्मा मृत व्यक्ति की आत्मा के साथ एकत्व प्राप्त कर लेती है।
यावच्चाग्नौ मृते पत्यौ स्त्री नात्मानं प्रदाहयेत् । तावन्न मुच्यते सा हि स्त्री शरीरात्कथञ्चन॥ ४६॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्वपतिं सेवयेत्सदा। कर्मणा मनसा वाचा मृते जीवति तद्गता॥ ४७॥
मृते भर्तरि या नारी समारोहेन््वुताशनम्। साऽरुन्धतीसमा भूत्वा स्वर्गलोके महीयते ॥ ४८ ॥
पति की मौत हो जाने के बाद भी स्त्री अपने शरीर को नहीं जलाती है वह किसी भी प्रकार से मुक्त नहीं होती है। सर्वप्रयत्नपूर्वक मन, वाणी और कर्मसे जीवितावस्था मे अपने पति का अनुसरण करना चाहिए और अपने पति की सेवा करना चाहिए ।पतिके मरनेपर जो स्त्री अग्निमें आरोहण करती है, बह (महर्षि वसिष्ठकी पत्नी) अरुन्धतीके समान होकर स्वर्गलोक मे सम्मानित होती है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
तत्र सा भर्तृपरमा स्तूयमानाऽप्सरोगणैः। रमते पतिना सार्ध यावदिन्द्राश्चतुर्दश॥ ४९ ॥ मातृकं पैतृकं चैव यत्र सा च प्रदीयते । कुलत्रयं पुनात्यत्र भर्तारं याऽनुगच्छति॥ ५०॥
मतलब यही है कि वह स्त्री एक कल्प तक अपने पति के साथ स्वर्ग लोक के अंदर रमण करती है।जो सती अपने भर्ताका अनुगमन करती है, वह अपने मातृकुल, पितृकुल और पतिकुल इन सभी को पवित्र कर देती है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए और आप इस बात को समझ सकते हैं और यही आपके लिए सही होगा ।
तिस्त्रः कोट्योऽर्धकोटी च यानि रोमाणि मानुषे । तावत्कालं वसेत्स्वर्गे पतिना सह मोदते॥ ५१॥ विमाने सूर्यसंकाशे क्रीडते रमणेन सा । यावदादित्यचन्द्रौ च भर्तुलोके चिरं वसेत्॥ ५२॥ पुनश्चिरायुः सा भूत्वा जायते विमले कुले । पतिब्रता तु या नारी तमेव लभते पतिम्॥ ५३॥
मनुष्य के शरीरमें साढ़े तीन करोड़ रोमकूप हैं । और इतने समय तक वह नारी अपने पति के साथ स्वर्ग मे निवास करती है।वह सूर्य की तरह प्रकाश विमान से अपने पति के साथ क्रिडा करती है।इस तरह से दीघार्यु प्राप्त करती है और एक पवित्र कुल के अंदर पैदा होकर उस पति को फिर से प्राप्त करती है।जबतक सूर्य और चन्द्रकी स्थिति रहती है तबतक पतिलोकमें निवास करती रहती है।
या क्षणं दाहदुःखेन सुखमेतादूशं त्यजेत्। सा मूढा जन्मपर्यन्तं दह्यते विरहाग्निना॥ ५४॥ तस्मात् पतिं शिवं ज्ञात्वा सह तेन दहेत्तनुम् । यदि न स्यात्सती ताक्ष्य तमेव प्रदहेत्तदा॥ ५५॥ अर्धे दग्धेऽथवा पूर्णे स्फोटयेत्तस्य मस्तकम् । गृहस्थानां तु काष्ठेन यतीनां श्रीफलेन च॥ ५६॥
जो स्त्री क्षण मात्र के दुख को देखकर सुखों को छोड़ देती है वह जीवन पूरा होने तक विरह के अंदर जलती रहती है। हालांकि यह बात आजकल लागू नहीं होती है।इसलिए पति को शिवस्वरूप मानकर अपने शरीर को जला देना चाहिए ।
यदि पत्नी सती नहीं होती है तो फिर पति के शव का ही दाह करना चाहिए । और उसके शर को अंत मे शव के पूरे जल जाने पर गृहस्थोंके मस्तकको काष्ठसे और यतियोंके मस्तकको श्रीफलसे फोड़ देना चाहिये
प्राप्तये पितूलोकानां भित्त्वा तदब्रह्मरन्ध्रकम्। आज्याहुतिं ततो दद्यान्मन्त्रेणानेन तत्सुतः॥ ५७॥ अस्मात््वमभिजातोऽसि त्वदयं जायतां पुनः। असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा ज्वलतु पावक॥ ५८ ॥
एवमाज्याहुतिं दत्त्वा तिलमिश्रां समन्त्रकाम् । रोदितव्यं ततो गाढं येन तस्य सुखं भवेत्॥ ५९॥
उसके बाद पितृलोक की प्राप्ति के लिए ब्रह्ररंध्र का भेदन करना चाहिए ।और उसके बाद घी की आहूती देते समय प्रार्थना करनी चाहिए ।हे अग्निदेव! तुम भगवान् वासुदेव*के द्वारा उत्पन्न किये गये हो। पुनः तुम्हारे द्वारा इसको (तेजोमय दिव्य शरीरको) उत्पत्ति हो। स्वर्गलोकमें गमन करनेके लिये इसका (स्थूल) शरीर जलकर तुम्हारा हवि हो, एतदर्थ तुम प्रज्वलित होओ उसके बाद जोर से रोना चाहिए । और यदि आप ऐसा करते हैं तो इससे काफी अधिक फायदा होगा । और मरने वाले इंसान को इससे शांति मिलेगी । आप इस बात को समझ सकते हैं।
दाहादनन्तरं कार्यं स्त्रीभिः स्नानं ततः सुतैः। तिलोदकं ततो दद्यान्नामगोत्रोपकल्पितम्॥ ६०॥
प्राशयेन्निम्बपत्राणि मृतकस्य गुणान् ददेत् । स्त्रीजनोऽग्रे गृहं गच्छेत्पृष्ठतो नरसञ्चयः॥ ६९॥
उसके बाद दाह हो जाए तो स्त्री को स्नान करना चाहिए और फिर पुरूषों को स्नान करना चाहिए । मृत प्राणीके गोत्र-नामका उच्चारण करके तिलांजलि देनी चाहिये । और नीम के पत्तों को चबाकर गुणगान करना चाहिए । फिर आगे आगे स्त्री और पीछे पुरूष को आना चाहिए ।
मृतकस्थानमालिप्य दक्षिणाभिमुखं ततः। द्वादशाहकपर्यन्तं दीपं कुर्यादहर्निशम्॥ ६३॥ सूर्येऽस्तमागते ताक्ष्यं श्मशाने वा चतुष्पथे। दुग्धं च मृण्मये पात्रे तोयं दद्याद् दिनत्रयम्॥ ६४॥ अपक्वमुण्मयं पात्रं क्षीरनीरप्रपूरितम् । काष्ठत्रयं गुणैर्बद्धं धृत्वा मन्त्रं पठेदिमम्॥ ६५॥ श्मशानानलदग्धोऽसि परित्यक्तोऽसि बान्धवैः। इदं नीरमिदं क्षीरमत्र स्नाहि इदं पिब॥ ६६॥ चतुर्थे सञ्चयः कार्यः साग्निकैश्च निरग्निकैः। तृतीयेऽह्नि द्वितीये वा कर्तव्यश्चाविरोधतः॥ ६७॥
उसके बाद घर को आना चाहिए और स्नान फिर से करना चाहिए गाय को ग्रास देना चाहिए ।उसके बाद घर का अन्न नहीं खाना चाहिए ।मृतकके स्थानको लीपकर वहाँ बारह दिनतक रात-दिन दक्षिणाभिमुख अखण्ड दीपक जलाना चाहिये । श्मसान भूमी मे या फिर चौराहे पर तीन दिन तक दूध और जल देना चाहिए ।
काठकी तीन लकड़योंको दूढ़तापूर्वक सूतसे बाँधकर उसके उपर एक दीपक रखना चाहिए । उसके अंदर जल और दूध को रखना होगा । उसके बाद कहना चाहिए । (हे प्रेत!) तुम श्मशानकी आगसे जले हुए हो, बान्धवोंसे परित्यक्त हो, यह जल और यह दूध (तुम्हारे लिये) है, इसमें स्नान करो और इसे पीओ
दिन अस्थिसंचय करना चाहिये और निषिद्ध वार-तिथिका विचार करके निरग्निकको तीसरे अथवा दूसरे दिन अस्थिसंचय करना चाहिये॥ ६७॥ गत्वा श्मशानभूमिँ च स्नान कृत्वा शुचिर्भवेत् । ऊर्णासूत्रं वेष्टयित्वा पवित्रीं परिधाय च॥ ६८ ॥ दद्याच्छमशानवासिभ्यस्ततो माषबलिं सुतः। यमाय त्वेतिमन्त्रेण तिस्त्रः कुर्यात्परिक्रमाः॥ ६९॥ ततो दुग्धेन चाभ्युक्ष्य चितास्थानं खगेश्वर । जलेन सेचयेत्पश्चादुद्धरेदस्थिवृन्दकम्॥ ७०॥ कृत्वा पलाशपत्रेषु क्षालयेहुग्धवारिभिः । संस्थाप्य मृण्मये पात्रे श्राद्धं कुर्याद्यथाविधि॥ ७१॥ त्रिकोणं स्थण्डिलं कृत्वा गोमयेनोपलेपितम् । दक्षिणाभिमुखो दिक्षु दद्यात्पिण्डत्रयं त्रिषु॥ ७२॥ पुञ्जीकृत्य चिताभस्म तत्र धृत्वा त्रिपादुकाम् । स्थापयेत्तत्र सजलमनाच्छाद्य मुखं घटम्
अस्थि-संचयके लिये श्मसान भूमी के अंदर जाएं और उसके बाद पवित्र हो जाएं । उसके बाद ऊनका सूत्र लपेटकर और पवित्री धारण करके श्मशानवासियों को उड़द आदि की बली देनी चाहिए । उसके बाद इसके बाद चितास्थानको दूधसे सींचकर जलसे सींचे। तदनन्तर अस्थिसंचय करे । उसके बाद उन अस्थियों को पलास के पत्ते पर रखें और फिर दूध और जल से आपको धोना होगा ।पुनः मिट्टीके पात्रपर रखकर रखकर आपको पिंडदान करना चाहिए ।
ततस्तण्डुलपाकेन दधिघृतसमन्वितम् । बलिं प्रेताय सजलं दद्यान्मिष्टं यथाविधि॥ ७४॥ पदानि दश पञ्चैव चोत्तरस्यां दिशि व्रजेत्। गर्त विधाय तत्रास्थिपात्रं संस्थापयेत्खग॥ ७५॥ तस्योपरि ततो दद्यात्पिण्डं दाहार्तिनाशनम् । गर्तादुद्धृत्य तत्पात्रं नीत्वा गच्छेजलाशयम्॥ ७६॥ तत्र प्रक्षालयेहुग्धजलादस्थि पुनः पुनः। चर्चयेच्चन्दनेनाथ कुंकुमेन विशेषतः॥ ७७॥ धृत्वा सम्पुटके तानि कृत्वा च हृदि मस्तके । परिक्रम्य नमस्कृत्य गङ्कामध्ये विनिक्षिपेत्॥ ७८॥ अन्तर्दशाहं यस्यास्थि गङ्गातोये निमज्जति। न तस्य पुनरावृत्तिर्ब्रह्मलोकात्कदाचन॥ ७९॥ यावदस्थि मनुष्यस्य गङ्गातोयेषु तिष्ठति। तावद्वर्षसहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते
इसके बाद चावल पकाकर उसमें दही और घी तथा मिष्टान्न प्रेत को बलि प्रदान की जाती है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।फिर उत्तरदिशामें पंद्रह कदम जाय और वहाँ गड्ढा बना करके अस्थिपात्रको स्थापित करना चाहिए और पिंडदान करना चाहिए ।
गड्ढेसे उस अस्थिपात्रको निकालकर गंगाजी के लिए लेकर जाएं । उसके बाद आपको करना यह है कि दूध और जलसे उन अस्थियोंको बार-बार प्रक्षालित करके चन्दन और कुंकुमसे विशेषरूपसे चर्चित लेप करें और उसके बाद अस्थि को प्रणाम करें । उसके बाद उसके बाद अस्थि को दोनो हाथों से गंगा नदी के अंदर डाल देना चाहिए । माना जाता है कि ऐसा करने से प्रेत कभी भी वापस लौट कर नहीं आता है और स्वर्ग लोक के अंदर निवास करता है। गंगाजलमें मनुष्यको अस्थि जबतक रहती है, उतने हजार वर्षोतक वह स्वर्गलोकमें विराजमान रहता है ऐसी मान्यता है।
गङ्काजलोर्मि संस्पृश्य मृतकं पवनो यदा । स्पृशते पातकं तस्य सद्य एव विनश्यति॥ आराध्य तपसोग्रेण गङ्गादेवी भगीरथः । उद्धारार्थं पूर्वजानां आनयद् ब्रह्मलोकतः॥ त्रिषु लोकेषु विख्यातं गङ्गायाः पावनं यशः। या पुत्रान्सगरस्यैतान्भस्माख्याननयद्विम्॥
उसके बाद गंगाजल के अंदर जब प्रेत की हड्डी को डाला जाता है तो उसके बाद वह गंगा के स्पर्श से ही प्रेत के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। कहा जाता है कि भागिरथ गंगा को देव लोक से धरती पर अपने पूर्वाजों के उद्धार के लिए लेकर आए थे । जिनके जलने भस्मीभूत राजा सगरके पुत्रोको स्वर्गमें पहुँचा दिया था ।
पूर्वे वयसि पापानि ये कृत्त्वा मानवा गताः । गङ्गायामस्थिपतनात्स्वर्गलोकं प्रयान्ति ते॥ ८४॥
कश्चिद् व्याधो महारण्ये सर्वप्राणिविहिसकः। सिंहेन निहतो यावत्प्रयाति नरकालये॥ ८५॥ तावत्कालेन तस्यास्थि गङ्गायां पतितं तदा। दिव्यं विमानमारुह्य स गतो देवमन्दिरम्॥ ८६॥ अतः स्वयं हि सत्पुत्रो गङ्गायामस्थि पातयेत् । अस्थिसञ्चयनादूर्ध्वं दशगात्रं समाचरेत्॥ ८७॥
जो मनुष्य पाप करते हुए मर जाते हैं उनकी अस्थियों को यदि गंगा के अंदर बहा दिया जाता है तो उसके बाद वे स्वर्ग चले जाते हैं और उसके बाद वे यहां पर नहीं भटकते हैं।एक जंगल के अंदर जानवरों की हत्या करने वाला व्याध सिंह के द्धारा मारा गया था ।
लेकिन उसकी अस्थि गलती गंगा के अंदर गिर गई ।तो वह व्याध दिव्य विमान के अंदर सवार होकर स्वर्ग चला गया ।इसलिए पुत्र को चाहिए कि पिता की अस्थियों को गंगा नदी के अंदर बहाकर आना चाहिए ।
अस्थिसंचयनके अनन्तर दशगात्रविधिका अनुष्ठान करना चाहिये॥ अथ कश्चिद्विदेशे वा वने चौरभये मृतः। न लब्धस्तस्य देहश्चेच्छुणुयाद्यद्दिने तदा॥ ८८॥ दर्भपुत्तलकं कृत्वा पूर्ववत्केवलं दहेत्। तस्य भस्म समादाय गङ्गातोये विनिक्षिपेत्॥ ८९॥ दशगात्रादिकं कर्म तद्दिनादेव कारयेत्। स एव दिवसो ग्राह्यः श्राद्धे सांवत्सरादिके॥ ९०॥ पूर्णे गर्भे मृता नारी विदार्य जठरं तदा। बालं निष्कास्य निक्षिप्य भूमौ तामेव दाहयेत्॥ ९१॥ गङ्कातीरे मृतं बालं गङ्घायामेव पातयेत्। अन्य देशे क्षिपेद् भूमौ सप्तविंशतिमासजम्॥ ९२॥ अतः परं दहेत्तस्य गङ्घायामस्थि निक्षिपेत् । जलकुम्भश्च दातव्यं बालानामेव भोजनम्॥ ९३॥
यदि कोई इंसान कहीं और मर गया है और उसका शव प्राप्त नहीं हुआ है तो फिर आपको एक उपाय करना चाहिए ।तो उसके बाद उसकी मौत का समाचार जिस दिन आप प्राप्त करते हैं उसी दिन से कुश का एक पुतला बनाएं और फिर विधि पूर्वक उसका दाह करदें । और उसकी राख को गंगा के अंदर विसर्जित करदें ।
दशगात्रादि कर्म भी उसी दिनसे आरम्भ करना चाहिये और सांवत्सरिक श्राद्धमें भी उसी तरह से । यदि गर्भवति स्त्री की मौत हो गई है तो उसके गर्भ को चीर कर उसके बच्चे को निकाल लेना चाहिए ।और उस बालक को जमीन के अंदर ही दफनाएं और सिर्फ 27 महिने तक के बालक को ही भूमी के अंदर दफनाना चाहिए । और स्त्री का दाह करना चाहिए । यही नियम है।
और 27 महिने से अधिक उम्र का बच्चा है तो उसके बाद उसका दाह ही करना चाहिए । और बाकि सभी तरह की क्रियाएं करनी चाहिए जिस तरह से दूसरे बड़े इंसानों की करते हैं।
गर्भे नष्टे क्रिया नास्ति दुग्धं देयं मृते शिशौ । घटं च पायसं भोज्यं दद्यादबालविपत्तिषु॥ ९४॥ कुमारे च मृते बालान् कुमारानेव भोजयेत् । सबालान्भोजयेद्विप्रान्यौगण्डे सव्रते मृते॥ ९५॥ मृतश्च पञ्चमादूर्ध्वमत्रतः सब्रतोऽपि वा। पायसेन गुडेनापि पिण्डान्दद्याहश क्रमात्॥ ९६॥ एकादशं द्वादशं च वृषोत्सर्गविधिं विना । महादानविहीनं च पौगण्डे कृत्यमाचरेत्॥ ९७॥
जीवमाने च पितरि न पौगण्डे सपिण्डनम् । अतस्तस्य द्वादशाहन्येकोद्दिष्टं समाचरेत्॥ ९८॥
गर्भके नष्ट होनेपर किसी तरह की क्रिया नहीं की जाती है। लेकिन यदि शिशु के दांत निकलने से पूर्व यदि वह मर जाता है तो उसके बाद उसके लिए दूध का दान करना चाहिए ।और 1 से तीन वर्ष के बालक के मरने पर खीर और दूध का दान करना चाहिए ।
कुमार के मरने पर दूसरे बालको को भोजन करवाना चाहिए ।उपनीत पौगण्ड अवस्थाके बच्चेके मरने पर उसी अवस्था के बालकों के साथ ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए ।पिताके जीवित रहनेपर पौगण्डावस्था में मृत बालक का सपिण्डन श्राद्ध नहीं होता है। वरन एक साथ ही श्राद्ध किया जाना चाहिए । आप इस बात को समझ सकते हैं।
स्त्रीशूद्राणां विवाहस्तु व्रतस्थाने प्रकीर्तितः । व्रतात्प्राक्सर्ववर्णानां वयस्तुल्या क्रिया भवेत्॥ ९९ ॥
स्वल्पात्कर्मप्रसङ्गाच्च स्वल्पाद् विषयबन्धनात् । स्वल्पे वयसि देहे च क्रियां स्वल्पामपीच्छति॥ १००॥
किशोरे तरुणे कुर्याच्छय्यावृषमखादिकम् । पददानं महादानं गोदानमपि दापयेत्॥१०१॥
यतीनां चैव सर्वेषां न दाहो नोदकक्रिया । दशगात्रादिकं तेषां न कर्तव्यं सुतादिभि: ॥ १०२॥
दण्डग्रहणमात्रेण नरो नारायणो भवेत् । त्रिदण्डग्रहणात्तेषां प्रेतत्वं नैव जायते॥ १०३॥
स्त्री और शूद्रोके लिये विवाह ही व्रतबन्ध-स्थानीय संस्कार कहा गया है । और व्रत और उपनयन के पूर्व मरने वालों को उनके अवस्था के अनुसार क्रिया करनी चाहिए ।
किशोर अवस्था के और तरुण अवस्था के मनुष्य के मरनेपर शय्यादान, वृषोत्सर्गादि, पददान, महादान और गोदान जैसा कुछ किया जा सकता है।संन्यासियों के मरने मे उनका ना तो श्राद्ध नहीं करना चाहिए । और ना ही उसका दाह संस्कार किया जाना चाहिए और इसका कारण यह है कि संन्यास ग्रहण करने मात्रा से ही वह नारायण को प्राप्त कर लेता है। और प्रेत नहीं बन पाता है।
ज्ञानिनस्तु सदा मुक्ताः स्वरूपानुभवेन हि । अतस्तेतु प्रदत्तानां पिण्डानां नैव काङ्क्षिणः॥ १०४॥
तस्मात्पिण्डादिकं तेषां नैव नोदकमाचरेत् । तीर्थश्राद्धं गयाश्राद्धं पितृभक्त्या समाचरेत्॥ १०५॥
और जो ज्ञानीजन तो अपने असली रूवरूप का अनुभव कर लेने के बाद सदा से ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। इसलिए उनको किसी भी तरह की पिंड की जरूरत नहीं होती है।इस तरह के लोगों को किसी तरह की पिंडदान की कोई भी जरूरत नहीं होती है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
हंसं परमहंसं च कुटीचकबहूदकौ । एतान् संन्यासिनस्ताक्ष्यं पृथिव्यां स्थापयेन्मृतान्॥ १०६॥ गङ्कादीनामभावे हि पृथिव्यां स्थापनं स्मृतम् । यत्र सन्ति महानद्यस्तदा तास्वेव निक्षिपेत्॥ १०७॥ इति गरुडपुराणे सारोद्धारे दाहास्थिसंचयकर्मनिरपणं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १०॥
हंस, परमहंस, कुटीचक और बहूदक आदि तीनों प्रकार के संयासियों के शरीर को गाड़ देना चाहिए । और इनके शरीर को जलाना नहीं चाहिए । यदि नदी है तो उसके पास गाड़ देना चाहिए ।
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This post was last modified on April 14, 2023