गरूड़ पुराण अध्याय 5 garud puran adhyay 5 गरुड उवाच येन येन च पापेन यझच्चिहनं प्रजायते । यां यां योनिं च गच्छन्ति तन्मे कथय केशव॥
उसके बाद कहा जाता है हे केशव जिस जिस पाप से जो जो चिन्ह प्राप्त होते हैं और जीव जिस जिस योनी मे जाते हैं उसके बारे मे भी मुझे बताने की कृपा करें ।
श्रीभगवानुवाच यैः पापैर्यान्ति यां योनिं पापिनो नरकागताः। येन पापेन यच्चिह्नं जायते मम तच्छुणु॥ ब्रह्महा क्षयरोगी स्याद् गोघ्नः स्यात्कुब्जको जडः । कन्याघाती भवेत्कुष्ठी त्रयश्चाण्डालयोनिषु॥
श्रीभगवानने कहा- नर्क से आए हुए इंसान की पहचान काफी आसानी से हो जाती है क्योंकि उसके शरीर रोगग्रस्त होते हैं तो आइए जानते हैं इसके बारे मे ब्रह्म हत्यारा क्षय रोगी होता है, गायकी हत्या करनेवाला मूर्ख और कुबड़ा होता है। कन्याकी हत्या करनेवाला कोढ़ी होता है और यह तीनों चांडाल योनी को प्राप्त करते हैं।
स्त्रीधाती गर्भपाती च पुलिन्दो रोगवान् भवेत् । अगम्यागमनात्षण्ढो दुश्चर्मा गुरुतल्पग: ॥ मांसभोक्ताऽतिरक्ताङ्गः श्यावदन्तस्तु मद्यप: । अभक्ष्यभक्षको लोल्याद् ब्राह्मण: स्यान्महोदरः ॥ अदत्त्वा मिष्टमश्नाति स भवेद्गलगण्डवान् । श्राद्धेञ्न्नमशुचिं दत्त्वा श्वित्रकुष्ठी प्रजायते ॥
स्त्री की हत्या करने वाला और गर्भपात करने वाला भिल्ल रोगी होता है।परस्त्री के साथ गमन करने वाला नपुंसक होता है और गुरूपत्नी के साथ व्यभीचार करने वाला चर्म रोगी होता है।और मांस का भोजन करने वाले का अंग लाल होता है।मद्य पीनेवालेके दाँत काले होते हैं।
श्राद्धमें अपवित्र अन्न देने वाला श्वेतकुष्ठी होता हैजो दूसरेको दिये बिना मिष्टान्न खाता है, उसे गलेमें गण्डमाला रोग हो जाता है।
गुरोर्गर्वेणावमानादपस्मारी भवेन्नरः । निन्दको वेद शास्त्राणां पाण्डु रोगी भवेद् ध्रुवम्॥ कूटसाक्षी भवेन्मूकः काणः स्यात्पंक्तिभेदकः। अनोष्ठः स्याद्विवाहष्नो जन्मान्धः पुस्तकं हरेत्॥ गोब्राह्मणपदाघातात्खञ्जः पङ्गुश्च जायते । गदगदोऽनृतवादी स्यात्तच्छोता बधिरो भवेत्॥
गर्व से गुरू का अपमान करने वाला मिर्गी का रोगी होता है। इसके अलावा वेदशास्त्रकी निंदा करने वाला पांडू रोगी होता है ,पंक्तिभेद करने वाला काना और झूठी गवाही देने वाला गूंगा ,और विवाह के बाधा पैदा करने वाला ओष्ठरहित होता है।झूठी बात सुननेवाला बहरा होता है
गरदः स्याज्जडोन्मत्तः खल्वाटोऽग्निप्रदायकः । दुर्भगः पलविक्रेता रोगवान् परमांसभुक् ॥ हीनजातौ प्रजायेत रत्नानामपहारकः । कुनरखी स्वर्णहर्ता स्याद्धातुमात्रहरोऽधनः॥ अन्नहर्ता भवेदाखुः शलभो धान्यहारकः। चातको जलहर्ता स्याद्विषहर्ता च वृश्चिकः॥ शाकं पत्रं शिखरी हृत्वा गन्धांश्छुच्छुन्दरी शुभान् । मधुदंशः पलं गृध्रो लवणं च पिपीलिका॥
उसके बाद नर्क से आए हुए लोगों का वर्णन करते हुए यह कहा गया है कि विष देनेवाला मूर्ख , आग लगाने वाला गंजा ,मांस बेचने वाला अभागा ,दूसरेका मांस खाने वाला रोगी होता है । और रत्नों का अपहरण करने वाला हीन जाति मैं पैदा होता है। सोना चुराने वाला नख रोगी और धातुओं को चुराने वाला निर्धन और अन्न चुराने वाला चूहा और धान चुरानेवाला शलभ (टिङ्डी) होता है ।जैसे जल की चोरी करने वाला चातक होता है।विषका व्यवहार करनेवाला वृश्चिक (बिच्छू) होता है । और शाक पात को चुराने वाला मयूर होता है।शुभ गन्धवाली वस्तुओंको चुराने वाला छुछुन्दरी होता है। मधु चुराने वाला डांस , और मांस चुराने वाला गीद और नमक चुराने वाला चींटी होता है।
ताम्बूलफलपुष्पादिहर्ता स्याद्वानरो वने। उपानत्तृणकार्पासहर्ता स्यान्मेषयोनिषु॥ यश्च रौद्रोपजीवी च मार्गे सार्थान्विलुम्पति । मृगयाव्यसनीयस्तु छागः स्याद्धिके गृहे॥
ताम्बूल, फल तथा पुष्प आदि की चोरी करने वाला बंदर होता है।जूता, घास तथा कपास को चुराने वाला भेडिया बनता है।आजीविका को गलत कर्मों से चलाने वाला मार्ग मे यात्रियों को लूटता है।जो आखेटका व्यसन रखनेवाला है, वह कसाईके घरका बकरा होता है।
यो मृतो विषपानेन कृष्णसर्पो भवेद् गिरौ । निरंकुशस्वभावः स्यात् कुञ्जरो निर्जने वने॥ वैश्वदेवमकर्तारः सर्वभक्षाश्च ये द्विजाः। अपरीक्षितभोक्तारो व्याघ्राः स्युर्निर्जने वने॥ गायत्रीं न स्मरेद्यस्तु यो न सन्ध्यामुपासते। अत्तर्दुष्टो बहिः साधुः स भवेद् ब्राह्मणो बकः॥
विष पीकर मरने वाला पर्वत पर काला नाग होता है।जिसका स्वाभाव अमर्यादित होता है वह निर्जन वन का हाथी होता है। बिना परीक्षण किये भोजन कर लेनेवाले व्यक्ति निर्जन वनमें व्याघ्र होते हैं।ब्राह्मण गायत्रीका स्मरण नहीं करता और जो संध्योपासन नहीं करता, जिसका अन्त:स्वरूप दूषित तथा बाह्य स्वरूप मे जो साधु की तरह दिखाई देते हैं वे आमतौर पर बगुला होते हैं।
अयाज्ययाजको विप्रः स भवेद् ग्रामसूकरः। खरो वै बहुयाजित्वात्काकोऽनिर्मन्त्रभोजनात्॥ पात्रे विद्यामदाता च बलीवर्दो भवेद् द्विजः । गुरुसेवामकर्ता च शिष्यः स्याद् गोखरः पशुः॥ गुरुं हुंकृत्य तुंकृत्य विप्रं निर्जित्य वादतः। अरण्ये निर्जले देशे जायते ब्रह्मराक्षसः॥
जिनको यज्ञ नहीं करना चाहिए । उनके यहां पर यज्ञ करने वाला ब्राह्मण सूअर होता है। क्षमता से अधिक यज्ञ करने वाला गर्दभ होता है।ऐसा ब्राह्मण जो सत्पात्र शिष्यों को विधा प्रदान नहीं करता है वह बैल होता है ,
गुरुकी सेवा न करनेवाला शिष्य बैल और गधा होता है । और गुरू के प्रति अपमान भरे शब्दों का प्रयोग करने वाला जल विहीन अरण्यमें ब्रह्म राक्षस होता है
प्रतिश्रुतं द्विजे दानमदत्त्वा जम्बुको भवेत्। सतामसत्कारकरः फेत्कारोऽग्निमुखो भवेत्॥ मित्रश्चुग्गिरिगृश्रः स्यादुलूकः क्रयवञ्चनात् । वर्णाश्रमपरीवादात्कपोतो जायते वने॥ आशाच्छेदकरो यस्तु स्नेहच्छेदकरस्तु यः। यो द्वेषात् स्त्रीपरित्यागी चक्रवाकश्चिरं भवेत्॥
प्रतिज्ञा करके दान ना देने वाला सियार होता है ,सत पुरूषों का आदर ना करने वाला अग्नि मुख सियार होता है।मित्र से द्रोह करने वाला गीध होता है।क्रयमें धोखा देनेवाला उल्लू होता है वर्णश्रम की नींदा करने वाला वन का कपोत होता है।
आशाको तोड्नेवाला और स्नेहको नष्ट करनेवाला, द्वेषवश स्त्री का परि त्याग कर देने वाला बहुत काल तक चकोर होता है।
मातृपितृगुरुद्वेषी भगिनीश्चातृवैरकृत् । गर्भे योनौ विनष्टः स्याद्यावद्योनिसहस्त्रशः॥ श्वश्रोऽपशब्ददा नारी नित्यं कलहकारिणी । सा जलौका च यूका स्याद्भर्तारं भर्त्सते च या
स्वपतिं च परित्यज्य परपुंसानुवर्तिनी। वल्गुनी गृहगोधा स्याद् द्विमुखी वाऽथ सर्पिणी॥
माता पिता और गुरू से द्धेष रखने वाला हजारों सालों तक गर्भ के अंदर नष्ट होता रहता है।सास ससुर को अपशब्द कहने वाली स्त्री , नित्य कलह करने वाली स्त्री जलजोंक होती है।
पति की भर्त्सना करनेवाली नारी जूँ होती है। और अपने पति का परित्याग करके किसी पर पुरूष का सेवन करने वाली स्त्री सर्पिणी या फिर चमगीदड़ी होती है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।
यः स्वगोत्रोपघाती च स्वगोत्रस्त्रीनिषेवणात् । तरक्षः शल्लको भूत्वा ऋक्षयोनिषु जायते॥
तापसीगमनात् कामी भवेन्मरुपिशाचकः। अप्राप्तयौवनासंगाद् भवेदजगरो वने॥
गुरुदाराभिलाघी च कृकलासो भवेन्नरः। राज्ञीं गत्वा भवेददुष्ट्रो मित्रपत्नीं च गर्दभः॥
सगोत्र स्त्री के साथ संबंध बनाने वाला लकड्बग्घा होकर रीछ योनी मे जन्म लेता है। तापसी के साथ व्यभिचार करने वाला मरू प्रदेश मे पिशाच होता है।अप्राप्त यौवनसे सम्बन्ध करनेवाला वनमें अजगर होता है। और गुरू पत्नी के साथ गमन करने वाला मनुष्य गिरगिट होता है।
राजपत्नी के साथ गमन करने वाला उंट और मित्र की पत्नी के साथ गमन करने वाला गधा होता है।
गुदगो विड्वराहः स्याद् वृषः स्याद् वृषलीपतिः । महाकामी भवेद् यस्तु स्यादश्वः कामलम्पटः॥ मृतस्यैकादशाहं तु भुञ्जानः श्वा विजायते । लभेद्देवलको विप्रो योनिं कुक्कुटसंज्ञकाम्॥ द्रव्यार्थं देवतापूजां यः करोति द्विजाधमः। स वै देवलको नाम हव्यकव्येषु गर्हितः॥
गुदा गमन करने वाला विष्ठाभोगी सूअर तथा शूद्रागामी बैल होता है।जो महाकामी होता है, बह कामलम्पट घोड़ा होता है। किसी के मरणाशौच में एकादशाहतक भोजन करने वाले को कुत्ता कहा जाता है। देवद्रव्यभोक्ता देवलक ब्राह्मण मुर्गेकी योनि प्राप्त करता है।
महापातकजान् घोरान्नरकान् प्राप्य दारुणान्। कर्मक्षये प्रजायन्ते महापातकिनस्त्विह॥ खरोष्ट्महिषीणां हि ब्रह्महा योनिमृच्छति । वृकश्वानश्वृगालानां सुरापा यान्ति योनिषु॥ कृमिकीटपतङ्गत्वं स्वर्णस्तेयी समाप्नुयात् । तृणगुल्मलतात्वं च क्रमशो गुरुतल्पगः॥
उसके बाद व्यक्ति कई सालों तक नरक का भोग करता रहता है और उसके बाद जब उसके कर्मों का क्षय हो जाता है तो फिर उसके बाद वह फिर से इस धरती लोक के अंदर जन्म लेता है।ब्रह्म हत्यारा गधा, ऊँट और महिषीकी योनि प्राप्त करता है तथा सुरापान करनेवाले भेड्या, कुत्ता एवं सियारकी योनिमें जाते हैं
परस्य योषितं हृत्वा न्यासापहरणेन च। ब्रह्मस्वहरणाच्चैव जायते ब्रह्मराक्षसः॥ ब्रह्मस्वं प्रणयाद्भुक्तं दहत्यासप्तमं कुलम्। बलात्कारेण चौर्येण दहत्याचन्द्रतारकम्॥
पत्नी का हरण करने वाला , किसी की धरोहर को हरण करने वाला ,ब्राहमणके धनका अपहरण करनेवाला ब्रह्मराक्षस होता है।ब्राहमणका धन का स्नेह वश या फिर चोरी की वजह से खाने वाला 7 पीढ़ियों तक अपने कुल का नाश करता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।बलात्कार तथा चोरीके द्वारा खानेपर जबतक चन्द्रमा तारों की स्थति होती है वह अपने कुल को जलाता रहता है।
लौहचूर्णाश्मचूर्णे च विषं च जरयेन्नरः। ब्रह्वं त्रिषु लोकेषु कः पुमाञ्जरयिष्यति॥ ब्रह्मस्वरसपुष्टानि वाहनानि बलानि च । युद्धकाले विशीर्यन्ते सैकताः सेतवो यथा॥ देवद्रव्योपभोगेन ब्रह्मस्वहरणेन च । कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च॥
लोहे और पत्थर के चूर्ण तथा विष को व्यक्ति पचा सकता है वह तीनों लोकों मे कौन ऐसा व्यक्ति होता है। और ब्राह्रमण के धन से पोषित की गई सेना युद्धकाल के अंदर सेतु बांध के समान नष्ट हो जाती है।ब्रह्मस्वका हरण करनेसे या ब्राह्मणका अतिक्रमण करनेसे कुल पतित हो जाते हैं इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए। और आप इस बात को अच्छी तरह से समझ सकते हैं।
स्वमाश्रितं परित्यज्य वेदशास्त्रपरायणम् । अन्येभ्यो दीयते दानं कथ्यतेऽयमतिक्रमः॥ ब्राह्मणातिक्रमो नास्ति विप्रे वेदविवर्जिते । ज्चलन्तमग्निमुत्सृज्य न हि भस्मनि हूयते॥ अतिक्रमे कृते तार्ष्य॑ भुक्त्वा च नरकान् क्रमात् । जन्मान्धः सन्दरिद्रः स्यान्न दाता किंतु याचकः ॥
अपने आश्रित वेद-शास्त्रपरायण ब्राह्मणको छोड़कर अन्य किसी ब्राह्रमण को दान देना अतिक्रमण कहलाता है।वेदवेदांगके ज्ञानसे रहित ब्राह्मणको छोड़ना अतिक्रमण नहीं कहलाता है।क्योंकि जलती हुई आग को छोड़कर भस्म मे आहूती नहीं दी जाती है।ब्राह्रमण का अतिक्रमण करने वाला इंसान नर्क के अंदर सजा भोगता है औरबाद मे दरिद्र घर के अंदर जन्म लेता है इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।वह कभी भी दाता नहीं होता है वरन याचक ही बना रहता है।
स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेच्च वसुन्धराम् ।
षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः॥ स्वयमेव च यो दत्त्वा स्वयमेवापकर्षति। स पापी नरकं याति यावदाभूतसम्प्लवम्॥ दत्त्वा वृत्तिं भूमिदानं यत्नतः परिपालयेत् । न रक्षति हरेद्यस्तु स पङ्गुः शवाऽभिजायते
अपने द्धारा दी गई जमीन को छीन लेता है। वह साठ हजार वर्षो तक विष्ठाका कीड़ा होता है ।जो स्वयं देकर दुबारा स्वयं लेलेता है । इस तरह का इंसान नर्क के अंदर जाता है।जीविका अथवा भूमिका दान देकर यत्नपूर्वक उसको रक्षा करनी चाहिये; जो रक्षा नहीं करता प्रत्युत उसे हर लेता है । वह लंगड़ा कुत्ता बनकर रहता है।
विप्रस्य वृत्तिकरणे लक्षधेनुफलं भवेत् । विप्रस्य वृत्तिहरणान्मर्कटः श्वा कपि्भवेत्॥\ एवमादीनि चिह्नानि योनयश्च खगेश्वर । स्वकर्मविहिता लोके दूश्यन्तेऽत्र शरीरिणाम् एवं दुष्कर्मकर्तारो भुक्त्वा निरययातनाम् । जायन्ते पापशेषेण प्रोक्तास्वेतासु योनिषु॥
ब्राह्मणको आजीविका देने वाला सौ गायों के दान के बराबर फल को प्राप्त करता है।ब्राह्मणकी वृत्तिका हरण करनेवाला बन्दर, कुत्ता तथा लंगूर होता है। और हे खगेशवर प्राणी अपने कर्मों के अनुसार अलग अलग नर्क मे जाता है और वहां पर अपने पापों का फल को भोगने के बाद फिर से मनुष्य योनी के अंदर आता है और उसके शरीर पर पापों के लक्षण साफ साफ दिखाई देते हैं। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।
ततो जन्मसहस्त्रेषु प्राप्य तिर्यकूशरीरताम् । दुःखानि भारवहनोद्भवादीनि लभन्ति ते॥ पक्षिदुःखं ततो भुक्त्वा वृष्टिशीतातपोद्भवम् । मानुषं लभते पश्चात् समीभूते शुभाशुभे॥ स्त्रीपुंसोऽस्तु प्रसङ्गेन भूत्वा गर्भे क्रमादसौ । गर्भादिमरणान्तं च प्राप्य दुःखं ग्रियेत्युनः ॥
वह अपने पाप कर्म को भोगने के लिए हजारों वर्षों तक पशु और पक्षी बनता रहता है और काया के दुखों को भोगता रहता है उसके बाद जब उसके पाप और पुण्य बराबर हो जाते हैं तो फिर वह गर्भ की तलास करता है और मनुष्य योनी के अंदर जन्म लेता है।गर्भमें उत्पन्न होकर क्रमशः गर्भसे लेकर मृत्युतकके दुःख प्राप्त करके पुनः मर जाता है॥
समुत्पत्तिर्विनाशश्च जायते सर्वदेहिनाम् । एवं प्रवर्तितं चक्रं भूतग्रामे चतुर्विधे॥ घटीयन्त्रं यथा मर्त्या भ्रमन्ति मम मायया। भूमौ कदाचिन्नरके कर्मपाशसमावृताः॥
इस प्रकार से जो कर्म का चक्र होता है वह तीनों लोकों के अंदर चलता रहता है और मेरी माया की वजह से प्राणी कर्म पास से बंध जाता है और बार बार जन्म लेता है और बार बार मरता है इस तरह से कर्म का जो चक्र होता है वह हमेशा ही चलता रहता है और प्राणी दुख को भोगता रहता है।
इस तरह से कर्मपास से बंधन से बंधा हुआ इंसान बार बार मरता है और बार बार पैदा होता है इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और इस चक्र का कोई भी अंत नहीं होता है।
अदत्तदानाच्च भवेद् दरिद्रो दरिद्रभावाच्च करोति पापम्। पापप्रभावान्नरके प्रयाति पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी॥ अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि॥
दान न देनेसे प्राणी दरिद्र होता है और दरिद्र होने की वजह से वह फिर पाप करता है और पाप करने की वजह से वह नर्क मे जाता है और नर्क के फलों को भोगने के बाद वह फिर से धरती पर जन्म लेता है और दरिद्र होता है फिर पाप करता है। कर्म के फल का भोगे बिना नाश नहीं होता है।
भले ही इसके लिए चाहे कितने भी वर्ष बीत जाएं । आप इस बात को समझ सकते हैं। और यही आपके लिए सही होगा ।