गुरूड पुराण अध्याय 6 garud puran adhyay 6 के बारे मे जानकारी ,यदि हम गरूड पुराण के अध्याय 6 के बारे मे बात करें तो इसके अंदर बताया गया है कि जीवन जो नर्क से आता है वह किस प्रकार से माता के गर्भ के अंदर आता है। इसके बारे मे आपको बताया गया है।
गरुड उवाच कथमुत्पद्यते मातुर्जठरे नरकागतः। गर्भादिदुःखं यद्भुङ्क्ते तन्मे कथय केशव॥ १॥
गरुडजीने कहा–हे केशव! नर्क से आया हुआ जीव माता के गर्भ मे किस तरह से पैदा होता है और किस तरह से वह दुख को भोगता है इसके बारे मे भी जरा बताएं ?
॥ १॥ विष्णुरुवाच स्त्रीपुंसोस्तु प्रसङ्गेन निरुद्धे शुक्रशोणिते । यथाऽयं जायते मर्त्यस्तथा वक्ष्याम्यहं तव॥ २॥ भगवान् विष्णुने कहा_स्त्री और पुरुषके संयोगसे वीर्य और रजके स्थिर हो जानेपर जैसे मनुष्यको उत्पत्ति होती है, उसे मैं तुम्हें कहूँगा॥ २॥ ऋतुमध्ये हि पापानां देहोत्पत्तिः प्रजायते । इन्द्रस्य ब्रह्महत्याऽस्ति यस्मिन् तस्मिन् दिनत्रये॥ ३॥
प्रथमेऽहनि चाण्डाली द्वितीये ब्रह्मधातिनी । तृतीये रजकी होता नरकागतमातरः॥ ४॥
कर्मणा देवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये । स्त्रियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतः कणाश्रयः॥ ५॥
कललं त्वेकरात्रेण पञ्चरात्रेण बुद्बुदम् । दशाहेन तु कर्कन्धूः पेश्यण्डं वा ततः परम्॥ ६॥
ऋतुकाल में आरम्भके तीन दिनों तक इन्द्रको लगी ब्रहम हत्या का चतुर्थांश रजस्वला स््त्रयोंमें रहता है, उस ऋतुकाल के मध्यमें किये गये गर्भाधानके फलस्वरूप पापात्माओं के देहकी उत्पति होती है इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
रजस्वला स्त्री प्रथम दिन चाण्डाली, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन रजकी (धोबिन) कहलाती है। और नर्क से आए हुए प्राणियों की यह तीन ही माताएं होती हैं।प्राणी पुरुषके वीर्य कणका आश्रय लेकर स्त्रीके उदरमें प्रविष्ट होता है॥ एक रात्रिमें बह शुक्राणु कललके रूपमें, पाँच रात्रि में बुदूबुदके रूपमें, दस दिनमें बेरके समान तथा उसके पश्चात् मांसपेशियोंसे युक्त अण्डाकार का हो जाता है इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं। यही आपके लिए सही होगा ।
मासेन तु शिरो द्वाभ्यां बाह्वङ्गाद्यङ्गविग्रहः। नखलोमास्थिचर्माणि लिङ्गच्छिद्रोद्भवस्त्रिभिः ॥ ७॥
चतुर्भिर्धातवः सप्त पञ्चभिः क्षुत्तुडुद्भवः। षड्भिर्जरायुणा वीतः कुक्षौ भ्राम्यति दक्षिणे॥ ८ ॥
मातुर्जग्धान्नपानाद्यैरेधद्धातुरसम्मते । शेते विण्मूत्रयोर्गते स॒ जन्तुर्जन्तुसम्भवे॥ ९ ॥
उस गर्भ के अंदर पड़े हुए जीव का पहले मास के अंदर सिर और दूसरे मास के अंदर बहु और दूसरे अंग बनते हैं।तीसरे मासमें नख, लोम, अस्थि, चर्म तथा लिंगबोधक छिद्र पैदा हो जाते हैं और उसके बाद चौथे मास के अंदर रस, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र आदि पैदा हो जाते हैं। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।
उसके बाद पांच वे मास के अंदर भूख और प्यास पैदा हो जाती है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।और 6 मास के अंदर जीव मां के गर्भ के अंदर घूमता है।और माता के द्धारा खाये जाने वाली चीजों का उपयोग करता है और गर्भाश्य के अंदर ही सोता है।
कृमिभिः क्षतसर्वाङ्गः सौकुमार्यात् प्रतिक्षणम् । मूर्च्छामाप्नोत्युरुक्लेशस्तत्रत्यैः क्षुधितैर्मुहुः ॥ १०॥
कटुतीक्ष्णोष्णलवणरूक्षाम्लादिभिरुल्बणैः।
मातृभुक्तैरुपस्पृष्टः सर्वाङ्गोत्थितवेदनः। उल्बेन संवृतस्तस्मिन्नन्त्रैशच बहिरावृतः॥ १९॥
वहाँ गर्भस्थ क्षुधित कृमियों के द्वारा उसके सुकुमार अंग प्रतिक्षण बार-बार काटे जाते हैं । और उसके बाद वह जीव बेहोश हो जाता है इसके अलावा माता के द्धारा खाये जाने वाले खट्टे मीठे और तीखे की वजह से उस जीव को काफी वेदना होती है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
आस्ते कृत्वा शिरः कुक्षौ भुग्नपृष्ठशिरोधरः। अकल्पः स्वाङ्गचेष्टायां शकुन्त इव पञ्जरे॥ १२॥ तत्र लब्धस्मृतिर्दैवात् कर्म जन्मशतोद्भवम् । स्मरन् दीर्घमनुच्छ्वासं शर्म किं नाम विन्दते॥ १३॥ नाथमान ऋषिर्भीतः सप्तवश्चिः कृताञ्जलिः । स्तुवीत तं विक्लवया वाचा येनोदरेऽर्पितः ॥ १४॥ आरभ्य सप्तमान्मासाल्लब्धबोधोऽपि वेपितः । नैकत्रास्ते सूतिवातैर्विष्ठाभूरिव सोदरः॥ १५॥
उसकी पीठ और गरदन कुण्डलाकार रहती है । और वह खुद इधर उधर होने की चेष्टा करता है लेकिन वह इसके अंदर सफल नहीं हो सकता है। जिसकी वजह से वह गर्भ के अंदर आसानी से पड़ा रहता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।और भगवान की क्रपा से वह जीव अपने सैकड़ों कर्मों का स्मरण करता हुआ गर्भ के अंदर पड़ा रहता है। सात धातुओं के आवरणमें आवृत वह ऋषिकल्प जीव भयभीत होकर हाथ जोड़कर विकल वाणी से उन भगवान की स्तुति करता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
जब उसे 7 वें महिने अपने पूरे कर्मों का ज्ञान हो जाने के बाद वह पेट मे पड़े कीड़े की भांति ठहर नहीं पाता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
जीव उवाच श्रीपतिं जगदाधारमशुभक्षयकारकम् । व्रजामि शरणं विष्णुं शरणागतवत्सलम्॥ १६॥
उसके बाद वह जीव कहता है कि मैं लक्ष्मी के पति, जगत्के आधार, अशुभ का नाश करने वाले और जीवों के प्रति वात्सल्य रखने वाले भगवान विष्णू के शरण मे जाता हूं ।
त्वन्मायामोहितो देहे तथा पुत्रकलत्रके। अहं ममाभिमानेन गतोऽहं नाथ संसृतिम्॥ १७॥
कृतं परिजनस्यार्थे मया कर्म शुभाशुभम् । एकाकी तेन दग्धोऽहं गतास्ते फलभागिनः॥ १८॥
यदि योन्याः प्रमुच्येऽहं तत् स्मरिष्ये पदं तव । तमुपायं करिष्यामि येन मुक्तिं व्रजाम्यहम्॥ १९॥
विण्मूत्रकूपे पतितो दग्धोऽहं जठराग्निना । इच्छन्नितो विवसितुं कदा निर्यास्यते बहिः॥ २०॥
येनेदूशं मे विज्ञानं दत्तं दीनदयालुना । तमेव शरणं यामि पुनर्मे माऽस्तु संसृतिः॥ २१ ॥
न च निर्गन्तुमिच्छामि बहिगर्भात्कदाचन । यत्र यातस्य मे पापकर्मणा दुर्गतिर्भवेत्॥ २२॥
तस्मादत्र महद्दुःखे स्थितोऽपि विगतक्लमः। उद्धरिष्यामि संसारादात्मानं ते पदाश्रयः॥ २३॥
हे नाथ! मैं आपकी माया से मोहित होकर अनेक तरह के अशुभ शुभ कर्म किये थे । और पत्नी और पुत्र के मोह के अंदर बुरे कर्म किये । अब वे सब मुझसे अलग हो गए हैं और अपने कर्मों का फल अकेला ही भोग रहा हूं।
इस गर्भ से निकलकर जब मैं बाहर आ जाउंगा तो आपके चरणों का स्पर्श करूंगा ।और उसके बाद ऐसा उपाय करूंगा जिससे कि मुझे मुक्ति मिल सके ।विष्ठा और मूत्रके कुँएमें गिरा हुआ तथा जठराग्निसे जलता हुआ पता नहीं मैं कब यहां से बाहर निकल पाउंगा ।
जिस दीनदयालु परमात्माने मुझे इस प्रकारका विशेष ज्ञान दिया है । और मैं उनकी शरण को ग्रहण करता हूं ।ताकि मुझे फिर से इस संसार के चक्र मे ना आना पड़े ।इसका मतलब यह है कि मैं मां के गर्भ से फिर बाहर नहीं जाना पड़े । वरना पाप कर्म की वजह से मेरी दुर्गति होगी ।इसलिए मैं बहुत दुख की स्थति के अंदर रहकर भी आपके चरणों का आश्रय लेकर अपने खुद का उदार कर लूंगा ।
श्रीभगवानुवाच एवं कृतमतिर्गर्भे दशमास्यः स्तुवन्नृषिः । सद्यः क्षिपत्यवाचीनं प्रसूत्यै सूतिमारुतः॥ तेनावसृष्टः सहसा कृत्वाऽवाकूशिर आतुरः । विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण निरुच्छ्वासो हतस्मृतिः॥ पतितो भुवि विण्मूत्रे विष्ठाभूरिव चेष्टते । रोरूयति गते ज्ञाने विपरीतां गतिं गतः॥
श्री भगवान् बोले इस प्रकार से स्तुति करते हुए वह जीव दस मास का होने के बाद प्रसव के लिए नीचे की ओर आने लग जाता है। उसके बाद प्रसूति मार्ग के द्धारा वह नीचे की तरफ गिराया जाता है और मल और मूत्र के अंदर वह गिरता है।उसके बाद उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है जिसकी वजह से वह कीड़े की भांति रोता है और तड़पने का काम करता है। और वहां पर वह काफी तेजी से रोने का काम करने लग जाता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
गर्भे व्याधौ श्मशाने च पुराणे या मतिर्भवेत् । सा यदि स्थिरतां याति को न मुच्येत बन्धनात्॥ २७॥ यदा गर्भाद् बहिर्याति कर्मभोगादनन्तरम् । तदैव वैष्णवी माया मोहयत्येव पूरुषम्॥ २८॥
स॒ तदा मायया स्पृष्टो न किञ्चिदट्टदतेऽवशः। शैशवादिभवं दुःखं पराधीनतयाऽश्नुते॥ २९॥
गर्भमें, रुग्णावस्थामें, श्मशानभूमिमें तथा पुराण के पारायण या श्रवणके समय जैसी बुद्धि होती है, वह यदि स्थिर हो जाए तो कोई इंसान मुक्त नहीं हो सकता है।कर्म भोग के बाद वह जीव गर्भ से बाहर आता है। उसके बाद माया उसको मोहित कर देती है। फिर वह जीव विवश होकर कुछ भी नहीं बोल पाता है।
और उसके बाद माया के अंदर वशीभूत होकर वह जीव कुछ भी उल्टा सीधा करने लग जाता है। और इस तरह से वह बुरे कर्मों के अंदर शांमिल हो जाता है।
परच्छन्दं न विदुषा पुष्यमाणो जनेन सः। अनभिप्रेतमापन्नः प्रत्याख्या तु मनीश्वरः॥ ३०॥
शायितोऽशुचिपर्यङ्के जन्तुस्वेदजदूषिते । नेशः कण्डूयनेऽङ्गानामासनोत्थानचेष्टने॥ ३९॥
तुदन्त्यामत्वचं दंशा मशका मत्कुणादयः । रुदन्तं विगतज्ञानं कृमयः कृमिकं यथा॥ ३२॥
उसका पोषण करने वाले उसकी स्थिति को जान नहीं पाते हैं जिसकी वजह से वह जीव काफी अधिक व्यथित हो जाता है और विपरित स्थिति को प्राप्त हो जाता है।स्वेदज जीवॉंसे दूषित तथा विष्ठा-मूत्रसे अपवित्र हो जाता है और आसानी से अपने अंगो को नहीं खुजला पाता है।डाँस, मच्छर और खटमल आदि के काटे जाने की वजह से वह काफी अधिक दुखी होता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और जीव ज्ञान शून्य होकर काफी अधिक रोता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को अच्छी तरह से समझ सकते हैं।
इत्येवं शैशवं भुक्त्वा दुःखं पौगण्डमेव च । ततो यौवनमासाद्य याति सम्पदमासुरीम्॥ ३३॥दा दुर्व्यसनासक्तो नीचसङ्गपरायणः। शास्त्रसत्पुरुषाणां च द्वेष्टा स्यात्कामलम्पटः॥ ३४॥
शैशवावस्था के अंदर वह दुख को भोग कर प्रोडावस्था को प्राप्त करता है।युवावस्था के अंदर असुरी प्रवृति को प्राप्त करता है और उसके बाद दुर्व्यसनोंमें आसक्त होने के बाद दूसरे लोगों से संबंध बनाने के बारे मे विचार करता है। इस तरह से भ्रष्ट आचरण करना शूरू कर देता है।
और जो सतपुरूष होते हैं उनसे द्धवेष रखने लग जाता है। आप इस बात को समझ सकते हैं। और यही आपके लिए सही होगा । इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
दृष्ट्वा स्त्रियं देवमायां तद्वावैरजितेन्द्रियः। प्रलोभितः पतत्यन्धे तमस्यग्नौ पतङ्गवत्॥ ३५॥
कुरङ्गमातङ्गपतङ्गभूङ्गमीना हताः पञ्चभिरेव पञ्च । एकः प्रमाद स कथं न हन्यते यः सेवते पञ्चभिरेव पञ्च॥ ३६॥
उसके बाद भगवान की माया रूपी स्त्री को देखने के बाद वह अजितेन्द्रिय पुरुष महामोह अंधतम मे उसी प्रकारसे गिरता है जिस प्रकार से दीपक के अंदर पतंगा गिरता है। हिरन, हाथी, पतिंगा, भौंरा और मछली-ये पाँचों क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, गन्ध तथा रस-इन पाँच विषयों मे आसक्ति होने की वजह से मारा जाता है। फिर एक प्रमादी व्यक्ति जो पाँचों इन्द्रियोंसे पाँचों विषयोंका भोग करता है वह भला क्यों नहीं मारा जाएगा । आप इस बात को अच्छी तरह से समझ सकते हैं और यही आपके लिए सही होगा । इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
अलब्धाभीप्सितोऽज्ञानादिद्धमन्युः शचार्पितः। सह देहेन मानेन वर्द्ध॑मानेन मन्युना॥ ३७॥
करोति विग्रहं कामी कामिष्वन्ताय चात्मनः। बलाधिकैः स हन्येत गजैरन्यैर्गजो यथा॥ ३८॥
एवं यो विषयासक्त्या नरत्वमतिदुर्लभम् । वृथा नाशयते मूढस्तस्मात् पापतरो हि कः॥ ३९॥
किसी वस्तु की अप्राप्ति की वजह से उसे काफी अधिक क्रोध आ जाता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।वह इंसान अभिमान और क्रोध की वजह से दूसरों से शत्रुता कर लेता है। इस प्रकार अधिक बलशाली अन्य बलशाली द्वारा बह वैसे ही मारा जाता है, जैसे किसी बलवान् हाथीसे दूसरा हाथी । इस प्रकार वह कामी व्यर्थ मे ही मानव जीवन को नष्ट कर देता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।भला इससे बढ़ा कौन होगा ।
॥ ३९॥ जातीशतेषु लभते भुवि मानुषत्वं तत्रापि दुर्लभतरं खलु भो द्विजत्वम् । यस्तन्न पालयति लालयतीन्द्रियाणि तस्यामृतं क्षरति हस्तगतं प्रमादात्॥ ४०॥
ततस्तां वृद्धतां प्राप्य महाव्याधिसमाकुलः । मृत्युं प्राप्य महददुःखं नरकं याति पूर्ववत्॥ ४१ ॥
एवं गताऽगतैः कर्मपाशैर्बद्धाशच पापिनः। कदापि न विरज्यन्ते मम मायाविमोहिताः॥ ४२॥
इति ते कथिता तारक्ष्य पापिनां नारकोगतिः। अन्त्येष्टिकर्महीनानां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥ ४३॥
सैंकड़ों योनियों को पार करने के बाद इंसान को मानव यौनी प्राप्त होती है। द्विजत्व की प्राप्ति होना उससे भी दुर्लभ होता है इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।अतिदुर्लभ द्विजत्वको प्राप्तकर जो व्यक्ति द्विजत्वकी रक्षाके लिये अपेक्षित धर्म-कर्मानुष्ठान नहीं करता इस तरह के इंसान के हाथ मे आया हुआ अवसर प्रमाद के अंदर नष्ट हो जाता है।वृद्धावस्थाको बाद मे वह प्राप्त हो जाता है और उसके बाद रोगों की वजह से उसकी काफी बुरी हालत होती है अंत मे मर जाता है और फिर अपने पाप कर्मों की वजह से नर्क को प्राप्त होता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं और यही आपके लिए सही होगा ।
हे ताक्ष्य! इस प्रकार मैंने तुम्हें अन्त्येष्टि कर्म से हीन पापियों की नरक गति बतायी और आगे आप क्या सुनना चाहते हो ।
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