गुरूड पुराण अध्याय 8 garud puran adhyay 8 – आमुष्मिकीं क्रियां सर्वा वद सुकृतिनां मम । कर्तव्या सा यथा पुत्रैस्तथा च कथय प्रभो॥ १॥
गरुडजीने कहा- हे भगवन हमें अच्छी आत्माओं की सभी तरह की परलोकिक क्रियाओं के बारे मे बताएं । जैसे कि पुत्रों को किस तरह से क्रिया करनी चाहिए ? आदि के बारे मे हमे विस्तार से बताएं ।
श्रीभगवानुवाच साधु पुष्टं त्वया ताक्ष्य मानुषाणां हिताय वै। धार्मिकार्हं च यत्कृत्यं तत्सर्वं कथयामि ते॥ २॥ सुकृती वार्धके दृष्ट्वा शरीरं व्याधिसंयुतम् । प्रतिकूलान् ग्रहांश्चैव प्राणघोषस्य चाश्रुतिम्॥ ३॥ तदा स्वमरणं ज्ञात्वा निर्भयः स्यादतन्द्रितः। आज्ञातज्ञातपापानां प्रायश्चित्तं समाचरेत्॥ ४॥
हे तार्य मनुष्य के हित की द्रष्टि से तुमने यह बहुत ही अच्छी बात पूछी है तो इसके संबंध मे मैं तुमको बताता हूं । पुण्यात्मा व्यक्ति वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाने के बाद और ग्रहों की प्रतिकूलता को देखकर और नाद ना सुनाई दे तो फिर समझ जाना चाहिए कि उसकी मौत निकट है लेकिन उसको निर्भय रहना चाहिए । मतलब भय का त्याग कर देना चाहिए । यह सबसे अधिक जरूरी हो जाता है।
आलस्य का परित्याग कर अपने जाने और अनजाने से किये गए पापों के लिए क्षमा मांगनी चाहिए ।
यदा स्यादातुरः कालस्तदा स्नानं समारभेत् । पूजनं कारयेद्विष्णोः शालग्रामस्वरूपिणः॥ ५॥ अर्चयेद्गन्धपुष्पैश्च कुंकुमैस्तुलसीदलैः। धुपैरदीपैशच नेवेद्यैर्बहुभिर्मोदकादिभिः॥ ६॥ दत्त्वा च दक्षिणां विप्रान्नैवेद्यादेव भोजयेत् । अष्टाक्षरं जपेन्मन्त्रं द्वादशाक्षरमेव च॥ ७॥
जब आतुरकाल उपस्थित हो जाय स्नान करने के बाद शालग्रामस्वरूप भगवान विष्णू की पूजा करवाएं ।गन्ध, पुष्प, कुंकुम, तुलसीदल, धूप, दीप तथा बहुत-से मोदक आदि नैवेद्यों को अर्पित करें और इनका ही भोजन करवाएं और द्वादशाक्षर -मन्त्रका जप करे।
॥ ७॥ संस्मरेच्छुणुयाच्चैव विष्णोर्नाम शिवस्य च । हरेर्नाम हरेत् पापं नृणां श्रवणगोचरम्॥ ८॥ रोगिणोऽन्तिकमासाद्य शोचनीयं न बान्धवैः। स्मरणीयं पवित्रं मे नामधेयं मुहुर्मुहुः॥ ९॥
उसके बाद भगवान विष्णू और भगवान शिव के नामों का स्मरण करना चाहिए । और रोगी के पास आकर भी भी विलाप नहीं करना चाहिए । और यदि आप ऐसा करते हैं तो यह अच्छा नहीं माना जाता है। मतलब यही है कि यह शुभ नहीं माना जाता है।बस भजन भाव करने चाहिए । आप इस बात को समझ सकते हैं। और बस भगवान के नामों का बार बार जाप करना चाहिए । ऐसा करने से मन को शांति मिलती है ।
मत्स्यः कूर्मा वराहश्च नारसिंहश्च वामनः। रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्को तथैव च॥ एतानि दश नामानि स्मर्तव्यानि सदा बुधैः। समीपे रोगिणो ब्रूयुर्बान्धवास्ते प्रकीर्तिताः॥ ११॥ कृष्णेति मङ्गलं नाम यस्य वाचि प्रवर्तते। तस्य भस्मीभवन्त्याशु महापातककोटयः॥ १२॥
विद्वान् व्यक्तिको मत्स्य, कूर्म, वराह, नारसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि आदि का आपको किर्तन करना चाहिए । यह सबसे अधिक जरूरी होता है। ऐसा करने से मरने वाले इंसान के सारे पापकर्म नष्ट हो जाते हैं। और जो रोगी के पास रहकर भगवान के नामों का जाप करते हैं वे ही रोगी के सच्चे बांधव कहे जाते हैं ।
म्रियमाणो हरेर्नाम गृणन् पुत्रोपचारितम् । अजामिलोऽप्यगाद्धाम किं पुनः श्रद्धया गुणन्॥ १३॥ हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृतः । अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः॥ १४॥ हरेर्नाम्नि च या शक्तिः पापनिर्हरणे द्विज । तावत्कर्तुं समर्था न पातकं पातको जनः॥ १५॥
मरणासन्न अवस्था में अपने पुत्रके बहाने से *नारायण’ नाम लेकर अजामिल भी सदगति को प्राप्त हो गया था । लेकिन जो नारायण के नाम का जाप करते हैं भला उनकी सद्धगति कैसे नहीं हो सकती है।
यदि कोई बुरा इंसान भी भगवान के नामों का स्मरण करता है तो उसके सारे पाप कर्म नष्ट हो जाता है। पापों का समूल विनाश करने की जितनी शक्ति भगवान् के नाम में इतनी शक्ति होती है कि वह हर किसी का कल्याण कर सकती है।
किङ्करेभ्यो यमः प्राह नयध्वं नास्तिकं जनम् । नैवानयत भो दूता हरिनामस्मरं नरम्॥ अच्युतं केशवं रामनारायणं कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम्। श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं जानकीनायकं रामचन्द्रं भजे॥ १७॥ कमलनयन वासुदेव विष्णो धरणिधराच्युत शंखचक्रपाणे। भव शरणमितीरयन्ति ये वै त्यज भट दूरतरेण तानपापान्॥ १८॥ तानानयध्वमसतो विमुखान्मुकुन्दपादारविन्दमकरन्दरसादजस्त्रम्। निष्किञ्चनैः परमहंसकुलै रसज्ञैर्जुष्टादगृहे निरयवर्त्मनि बद्धतृष्णान्
यमदेव अपने किंकरोंसे कहते हैं-हे दूतो! तुम मेरे पास भगवान को नहीं मानने वालों को लेकर आया करो । जो भगवान का भजन करते हैं उनको मत लाया करो ।अच्युत, केशव, राम, नारायण, कृष्ण, दामोदर, वासुदेव, हरि, श्रीधर, माधव, गोपिकावल्लभ, जानकीनायक रामचन्द्रका मैं स्वयं भजन करता हूं और जो भगवान का भजन करते हैं उनको आपको मेरे पास नहीं लेकर आना है वरन उनको दूर से ही छोड़कर आ जाना है।
(हे दूतो !) जो निष्किंचन और रसज्ञ परमहंसोंके द्वारा निरन्तर आस्वादित भगवान् मुकुन्दके पादारविन्द-मकरन्द-रससे विमुख हैं (अर्थात् भगवद्भक्तिसे विमुख हैं) और नरकके मूल गृहस्थीके प्रपंचमें तृष्णासे बद्ध हैं, ऐसे असत्पुरुषोंको मेरे पास लाया करो॥
जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम्। कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि तानानयध्वमसतोऽकृतविष्णुकृत्यान्॥ २०॥ तस्मात् संकीर्तनं विष्णोर्जगन्मङ्गलमंहसाम् । महतामपि पक्षीन्द्र विद्ध्यैकान्तिकनिष्कृतिम्॥ २१॥
उसके बाद आगे के श्लोक के अंदर यमराज कहते हैं कि जिनकी जीभ भगवान के नाम का किर्तन नहीं करती । जिनका चित्त भगवान के नाम का स्मरण नहीं करता ।जिनका सिर भगवान को एक बार ही प्रणाम नहीं करता है। या भगवान के आगे झुकता नहीं है।इस प्रकार के असुरों को मेरे पास लेकर आओ ।
इस दुनिया के अंदर भगवान विष्णु का स्मरण ही एक मात्र महान पापों से मुक्त करने वाला है।
प्रायश्चित्तानि चीर्णानि नारायणपराङ्मुखम् । न निष्पुनन्ति दुर्बुद्धिं सुराकुम्भमिवापगाः॥ २२॥ कृष्णनाम्ना न नरकं पश्यन्ति गतकिल्बिषाः। यमं च तद्भटांश्चैव स्वप्नेऽपि न कदाचन॥
भगवान नारायण से दूर इंसान को इसी प्रकार से पवित्र नहीं कर सकते हैं जिस प्रकार से मदिर से भरे कलश को गंगा आदि नदियां भी पवित्र नहीं कर सकती हैं।
भगवान् कृष्ण के नाम स्मरण से सभी प्रकार के पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं और पाप कर्म नष्ट हो जाने की वजह से इस तरह के लोग सपने मे भी यमदूत को नहीं देख पाते है।
मांसास्थिरकतवत्काये वैतरण्यां पतेन्न सः। योऽन्ते दद्याद् द्विजेभ्यश्च ˆ नन्दनन्दनगामिति॥ २४॥ अतः स्मरेन्महाविष्णोर्नाम पापौघनाशनम् । गीतासहस्त्रनामानि पठेद्वा श्ृणुयादपि॥ २५॥ एकादशीव्रतं गीता गङ्गाम्बु तुलसीदलम् । विष्णोः पादाम्बुनामानि मरणे मुक्तिदानि च॥ २६॥ ततः संकल्पयेदन्नं सघृतं च सकाञ्चनम् । सवत्सा धेनवो देयाः श्रोत्रियाय द्विजातये॥ २७॥ अन्ते जनो यद्ददाति स्वल्पं वा यदि वा बहु। तदक्षयं भवेत् तक्ष्य यत्पुत्रश्शचानुमोदते॥ २८॥
भगवान् श्रीकृष्ण के नाम का जो सिर्फ अंतकाल मे ही जाप कर लेता है वह वैतरणी नदी के अंदर नहीं गिरता है और वह हांड मांस से युक्त उस नदी को ऐसे ही पार कर जाता है वह मुक्त हो जाता है।
इसलिए पापों को नष्ट करने के लिए विष्णु भगवान के नामों का स्मरण करना चाहिए । और गीता आदि का पाठ करना चाहिए ।कादशीका व्रत, गीता, गंगाजल, तुलसीदल, भगवान् विष्णुका चरणामृत और नाम यह सब मरण काल मे मुक्ति देने वाले होते हैं।
इसके बाद घृत और सुवर्णसहित अन्नदानका संकल्प करे। श्रोत्रिय द्विज (वेदपाठी ब्राह्मण)-को सवत्सा गौका दान करे। और जो पुत्र मृत काल मे थोड़ा सा भी दान देता है वह अक्षय होता है।
अन्तकाले तु सत्पुत्रः सर्वदानानि दापयेत् । एतदर्थं सुतो लोके प्रार्थ्यते धर्मकोविदैः॥ २९॥
भूमिष्ठं पितरं दृष्ट्वा अर्धोन्मीलितलोचनम् । पुत्रैस्तृष्णा न कर्तव्या तद्धने पूर्वसंचिते॥ ३०॥
स॒ तद्ददाति सत्पुत्रो यावज्जीवत्यसौ चिरम्। अतिवाहस्तु तन्मार्गे दुःखं न लभते यतः॥ ३९॥
सत्पुत्रों को चाहिए कि वह अपने पिता को अंतकाल मे सभी प्रकार के दान को दे ।भूमिपर स्थित, आधी आँख मूँदे हुए पिताको देखकर पुत्रोंको संचित धन के बारे मे लालसा नहीं रखनी चाहिए ।सत्पुत्रों के द्धारा दीये गए दान से पिता कभी भी इस लोक और परलोक के अंदर दुखी नहीं होता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
आतुरे चोपरागे च द्यं दानं विशिष्यते। अतोऽवश्यं प्रदातव्यमष्टदानं तिलादिकम्॥ ३२॥
तिला लोहं हिरण्यं च कार्पासो लवणं तथा । सप्तधान्यं क्षितिर्गावो ह्येकैकं पावनं स्मृतम्॥ ३३॥
आतुरकाल और ग्रहणकाल- के अंदर जो दान देता है उसका महत्व काफी अधिक होता है। इसलिए दान को जरूर ही देना चाहिए । आप इस बात को समझ सकते हैं और यही आपके लिए सही होगा ।तिल, लोहा, सोना, कपास, नमक, सप्तधान्य आदि एक एक दान भी पवित्र करने वाला होता है।
एतदष्टमहादानं महापातकनाशनम् । अन्तकाले प्रदातव्यं शृणु तस्य च सत्फलम्॥ ३४॥
मम स्वेदसमुद्भूताः पवित्रास्त्रिविधास्तिलाः। असुरा दानवा दैत्यास्तृप्यन्ति तिलदानतः॥ ३५॥
तिलाः श्वेतास्तथा कृष्णा दानेन कपिलास्तिलाः। संहरन्ति त्रिधा पापं वाङ्मनः कायसंचितम्॥ ३६॥
यह अष्ट महादान पापों को नष्ट करने वाले होते हैं। इसलिए इनको अंतकाल मे जरूर ही देना चाहिए । इन दानों का उत्तम फल सुनो तीनों प्रकारके पवित्र तिल मेरे पसीनेसे उत्पन्न हुए हैं इसकी मदद से असुर दानव और दैत्य तृप्त होते हैं।श्वेत, कृष्ण तथा कपिल (भूरे) वर्णके तिलका दान सभी पापों को नष्ट करता है।
लौहदानं च दातव्यं भूमियुक्तेन पाणिना । यमसीमां न चाप्नोति न इच्छेत् तस्य वर्त्मनि॥ ३७॥कुठारो मुसलो दण्डः खड्गश्च छुरिका तथा। शस्त्राणि यमहस्ते च निग्रहे पापकर्मणाम्॥ ३८॥ यमायुधानां संतुष्ट्यै दानमेतदुदाहृतम् । तस्माददद्याल्लोहदानं यमलोके सुखावहम्॥ ३९॥
यदि आप लौह का दान करते हैं तो भूमी पर हाथ रखते हुए दान करना चाहिए । ऐसा करने से जीव यममार्ग को प्राप्त नहीं होता है और यमलोक मे नहीं जाता है।पाप-कर्म करनेवाले व्यक्तियोंका निग्रह करनेके लिये यमके हाथ में कुल्हाड़ी, मूसल, दण्ड, तलवार तथा छुरी- शस्त्रके रूपमें रहते हैं। इसलिए यमलोक मे भी सुख को प्राप्त करने के लिए लौह का दान करना चाहिए । आप इस बात को समझ सकते हैं।
उरणः श्यामसूत्रशच शण्डामर्कोऽप्यदुम्बरः। शेषम्बलो महादूता लोहदानात् सुखप्रदाः॥ ४०॥ श्रृणु ताक्ष्यं परं गुह्यां दानानां दानमुत्तमम् । दत्तेन तेन तुष्यन्ति भूर्भुवःस्वर्गवासिनः॥ ४१॥ ब्रह्माद्या ऋषयो देवा धर्मराजसभासदाः। स्वर्णदानेन संतुष्टा भवन्ति वरदायकाः॥ ४२॥ तस्माद् देयं स्वर्णदानं प््रेतोद्धरणहेतवे । न याति यमलोकं स स्वर्गतिं तात गच्छति॥ ४३॥
उरण, श्यामसूत्र, शण्डामर्क, उदुम्बर, शेषम्बल नामक यम के महादूत सुख प्रदान करने वाले होते हैं और हे पार्थ परम गोपनिय बात सुनों जिस दान को देने से भूलोक (पृथ्वी), भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और स्वर्गलोकके निवासी (अर्थात् मनुष्य, भूत-प्रेत तथा देवगण) संतुष्ट होते हैं।प्रेतके उद्धारके लिये स्वर्णदान करना चाहिए । ऐसा करने से प्रेत यमलोक नहीं जाता है और उसके बाद उसको स्वर्ग प्राप्त हो जाता है।
चिरं वसेत् सत्यलोके ततो राजा भवेदिह । रूपवान् धार्मिको वाग्मी श्रीमानतुलविक्रमः॥ कार्पासस्य च दानेन दूतेभ्यो न भयं भवेत् । लवणं दीयते यच्च तेन नैव भयं यमात्॥ अयोलवणकार्पासतिलकाञ्चनदानतः । चित्रगुप्तादयस्तुष्टा यमस्य पुरवासिनः ॥
इस प्रकार का जीव बहुत काल तक जीव सत्यलोक मे राजा होता है और काफी प्रारक्रमी भी होता है।कपास का दान देने से यम दूतों से भय नहीं होता है।लोहा, नमक, कपास, तिल और स्वर्णके दानसे यमपूर के निवासी चित्रगुप्त प्रसन्न होते हैं।
सप्तधान्यप्रदानेन प्रीतो धर्मध्वजो भवेत्। तुष्टा भवन्ति येऽन्येऽपि त्रिषु द्वारेष्वधिष्ठिताः॥ ब्रीहयो यवगोधूमा मुद्गा माषाः प्रियङ्कवः। चणकाः सप्तमा ज्ञेयाः सप्तधान्यमुदाहृतम्॥ ४८॥ गोचर्ममात्रं वसुधा दत्ता पात्रे विधानतः। पुनाति ब्रह्महत्याया दृष्टमेतन्मुनीश्वरैः॥ ४९॥
न व्रतेभ्यो न तीर्थेभ्यो नान्यदानाद् विनश्यति । राज्ये कृतं महापापं भूमिदानाद्विलीयते॥ ५०॥ पृथिवी सस्यसम्पूर्णा यो ददाति द्विजातये। स प्रयातीन्द्रभुवने पूज्यमानः सुरासुरैः॥ ५१॥
सप्तधान्य प्रदान करनेसे धर्मराज और यमपुर के तीनों द्वारों पर रहनेवाले द्धारपालक प्रसन्न हो जाते हैं।धान, जौ, गेहूँ, मूँग, उड़द, काकुन या कँगुनी और सात चना को सप्तधान्य कहा गया है।
भूमि विधानपूर्वक सत्पात्रको देता है वह ब्रह्रमहत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।ब्राह्मणको को भूमी का दान देता है वह सब प्रकार के पापों से मुक्त होकर इंद्रलोक की तरफ चला जाता है।
अत्यल्पफलदानि स्युरन्यदानानि काश्यप। पृथिवीदानजं पुण्यमहन्यहनि वर्धते॥ ५२॥ यो भूत्वा भूमिपो भूमिं नो ददाति द्विजातये । स नाप्नोति कुटीं ग्रामे दरिद्री स्याद्भवे भवे॥ ५३॥ अदानाद्भूमिदानस्य भूपतित्वाभिमानतः । निवसेन्नरके यावच्छेषो धारयते धराम्॥ ५४॥ तस्मादभूमीशवरो भूमिदानमेव प्रदापयेत्। अन्येषां भूमिदानार्थ गोदानं कथितं मया॥ ५५॥ ततोऽन्तधेनुर्दातव्या रुद्र्धेनुं प्रदापयेत् । ऋणधेनुं ततो दत्त्वा मोक्षधेनुं प्रदापयेत्॥ ५६॥ दद्याद्वैतरणीं धेनुं विशेषविधिना खग। तारयन्ति नरं गावस्त्रिविधाच्चैव पातकात्॥
इसके अलावा जो भूमी का स्वामी होने के बाद भी भूमी का दान नहीं करता है वह जन्म जन्मांतर मे दरिद्र ही होता है और किसी भी प्रकार की भूमी को प्राप्त नहीं करता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।
जो भूमी का स्वामी होता है वह भूमी का दान नहीं करता है वह नरक मे जाता है और तब तक नरक मे रहता है जबतक कि शेष नाग धरती को धारण करते हैं।और जिन इंसानों के पास भूमी नहीं है उनको गौ दान देना चाहिए । आप इस बात को समझ सकते हैं।
अन्तधेनुका दान और रूद्रधेनु का दान देना चाहिए ।ऋणधेनु देकर मोक्षधेनुका दान देना चाहिए ।गौएँ मनुष्यको त्रिविध पापों से मुक्त करने का काम करती हैं।
बालत्वे यच्च कौमारे यत्पापं यौवने कृतम् । वयःपरिणतौ यच्च यच्च जन्मान्तरेष्वपि॥ ५८ ॥
यन्निशायां तथा प््रातर्यन्मध्याहनापराह्लयोः। सन्ध्ययोर्यत्कृतं पापं कायेन मनसा गिरा॥ ५९॥
दत्त्वा धेनुं सकृद्वापि कपिलां क्षीरसंयुताम् । सोपस्करां सवत्सां च तपोवृत्तसमन्विते॥ ६०॥
ब्राह्मणे वेदविदुषे सर्वपापैः प्रमुच्यते। उद्धरेदन्तकाले सा दातारं पापसंचयात्॥ ६१॥
बाल्यावस्थामें, कुमारावस्थामें, युवावस्थामें, वृद्धावस्थामें और मन कर्म और वचन से जो पाप किये जाते हैं। उन सब को नष्ट करने के लिए तपस्या और सदाचार से युक्त ब्रह्रामणों को दान करना चाहिए । आप इस बात को समझ सकते हैं।
इसके अलावा यदि आप दूध देने वाली कपिला गौ का दान करते हैं तो ऐसा करने से सब प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं और इंसान का उद्धार हो जाता है इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
मतलब यही है कि गाय का दान करने से संचित पापों से उद्धार हो जाता है।
एका गौः स्वस्थचित्तस्य ह्यातुरस्य च गोः शतम् । सहस्त्रं म्रियमाणस्य दत्तं चित्तविवर्जितम्॥ ६२॥
मृतस्यैतत् पुनर्लक्षं विधिपूतं च तत्समम् । तीर्थपात्रसमोपेतं दानमेकं च लक्षधा॥ ६३॥
स्वस्थ चित्ता वस्था में दी गयी एक गौ, आतुरा वस्था में दी गयी सौ गौ और मृत्यु काल में चित्त विवर्जित व्यक्ति के द्वारा दी गयी एक हजार गौ तथा मरणोत्तर कालमें दी गयी विधिपूर्वक एक लाख गौ का जो फल होता है वह बराबर ही होता है।
पात्रे दत्तं च यद्दानं तल्लक्षगुणितं भवेत् । दातुः फलमनन्तं स्यान्न पात्रस्य प्रतिग्रहः॥ ६४॥
स्वाध्यायहोमसंयुक्तः परपाकविवर्जितः। रत्नपूर्णामपि महीं प्रतिगृह्य न लिप्यते॥ ६५॥
विषशीतापहौ मन्त्रवहनी कि दोषभागिनौ । अपात्रे सा च गोर्दत्ता दातारं नरकं नयेत्॥ ६६॥
कुलैकशतसंयुक्तं गृहीतारं तु पातयेत्। नापात्रे विदुषा देया ह्यात्मनः श्रेय इच्छता॥ ६७॥
एका ह्योकस्य दातव्या बहूनां न कदाचन। सा विक्रोता विभक्ता वा दहत्यासप्तमं कुलम्॥ ६८॥
कथिता या मया पूर्वं तव वैतरणी नदी। तस्या हयुद्धरणोपायं गोदानं कथयामि ते॥ ६९॥
सत्पात्र के अंदर दिया गया दान लाख गुणा होता है।और दाता को अनन्त फल प्राप्त होता है। स्वयंपाकी ब्राह्मण रत्नपूर्ण पृथ्वीका दान लेकर भी प्रति ग्रहदोष से लिप्त नहीं होता है ।विष और शीत को नष्ट करने वाली आग भी दोष के भागी होते हैं ? असल मे आपको पात्र को ही दान देना चाहिए । कभी भी अपात्र को दान नहीं देना चाहिए । यदि अपात्र को दान दिया जाता है तो वह अशुभ होता है। इसलिए अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले इंसान को पात्र पुरूष को ही दान देना चाहिए ।
यदि आप एक गौ दे रहे हैं तो आपको सिर्फ एक ही ब्राह्मण को गौ देनी चाहिए । बहुत सारे ब्राह्मणको एक ही गौ नहीं देनी चाहिए । यदि ऐसा किया जाता है तो वह गौ दान करने वाले को ही जला देती है। वैतरणी नदी के बारे मे तुम्हें बताया गया है।अब मैं तुम्हे गौ दान के विषय मे कहता हूं ।
कृष्णां वा पाटलां वा$पि धेनुं कुर्यादलंकृताम् । स्वर्णशृड्टीं रौप्यखुरीं कांस्यपात्रोपदोहिनीम् ॥ ७०॥ कृष्णवस्त्रयुगच्छन्नां कण्ठघण्टासमन्विताम् | कार्पासोपरि संस्थाप्य ताम्रपात्रं संचेलकम्॥ ७१॥ यमं हैमं न्यसेत् तत्र लौहदण्डसमन्वितम्। कांस्यपात्रे घृतं कृत्वा सर्वं तस्योपरि न्यसेत्॥ ७२॥ नावमिक्षुमयीं कृत्वा पडसूत्रेण वेष्टयेत् । गर्त विधाय सजलं कृत्वा तस्मिन् क्षिपेत्तरीम्॥ ७३॥
काले या फिर लाल रंग की गौ को सोने की सींग, चाँदीके खुर और काँसेके पात्रकी दोहनीके सहित दो काले रंगके वस्त्रों से सजाएं । उसके बाद उसके बाद उसके गले के अंदर एक घंटा बांधें ।उसके उपर ताम्रपात्र को स्थापित करें ।काँसे के पात्रमें घृत रखकर यह सब ताम्रपात्रके ऊपर रखे। और ईख की नाव को बनाकर रेशमी सूत्र से आपको बांधना होगा ।भूमिपर गड्ढा खोदे एवं उसमें जल भरकर वह ईंखको नाव को उसके अंदर डाल देना चाहिए ।
तस्योपरि स्थितां कृत्वा सूर्यदेहसमुद्भवाम् । धेनुं संकल्पयेत् तत्र यथाशास्त्रविधानतः॥ सालङ्काराणि वस्त्राणि ब्राह्मणाय प्रकल्पयेत् । पूजां कुर्याद्विधानेन गन्धपुष्पाक्षतादिभिः॥ ७५॥ पुच्छं संगृह्य धेनोस्तु नावमाश्रित्य पादतः। पुरस्कृत्य ततो विप्रमिमं मन्त्रमुदीरयेत्॥ ७६ ॥
उसके समीप सूर्य की देह से उत्पन्न धेनू को आपको खड़ी करना है।और शास्त्र की विधि के अनुसार दान करने का संकल्प लेना चाहिए ।ब्राह्मणोंको अलंकार और वस्त्रका दान दे तथा गन्ध, पुष्प आदि से गौ पूजा करवाएं ।गौ की पूंछ को पकड़कर ईख की नाव पर पैर रखकर मंत्र पढ़ें ।
भवसागरमग्नानां शोकतापोर्मिदु:खिनाम् । त्राता त्वं हि जगन्नाथ शरणागतवत्सल॥ ७७॥ विष्णुरूप द्विजश्रेष्ठ मामुद्धर महीसुर । सदक्षिणां मया दत्तां तुभ्यं वैतरणीं नमः॥ ७८॥ यममार्गे महाघोरे तां नदीं शतयोजनाम् । तर्तुकामो ददाम्येतां तुभ्यं वैतरणीं नमः॥ ७९॥ हे जगन्नाथ! हे शरणागतवत्सल!
भव सागर मे डूबे हूए शौक और संताप से दुख प्राप्त करते हुए ।जनोंके आप ही रक्षक हैं। हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! विष्णुरूप! भूमिदेव! आप मेरा उद्धार कीजिये।यह वबैतरणी-रूपिणी गौ आपको दिया है, आपको नमस्कार है। मैं महाभयावह यममार्ग में सौ योजन विस्तारवाली उस वैतरणी नदी को पार करने की इच्छा से गौ दान करता हूं । आपको नमस्कार है।
धेनुके मां प्रतीक्षस्व यमद्वारमहापथे। उत्तारणार्थ देवेशि वैतरण्ये नमोऽस्तु ते॥ गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठतः। गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम्॥ या लक्ष्मीः सर्वभूतानां या च देवे प्रतिष्ठिता । धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु॥ ८२॥ इति मन्त्रैश्च सम्प्रार्थ्य साञ्जलिर्धेनुकां यमम् । सर्व प्रदक्षिणीकृत्य ब्राह्मणाय निवेदयेत्॥ ८३॥ हे वैतरणीधेनु! हे देवेशि!
यमद्धार मे वैतरणी नदी को पार करने के लिए आप मैरी प्रतीक्षा करना ।
आपको नमस्कार है मेरे आगे भी गौंए हो मेरे पीछे ही भी गौ हो मेरे ह्रदय मे भी गौएं हो ।और गौ के मध्यम मे मैं निवास करूं ।जो लक्ष्मी सभी प्राणियों मे प्रतिष्ठित है जो देवताओं मे भी प्रतिष्ठित है वह मेरे पापों से मेरी रक्षा करें । इस प्रकार मन्त्रोंसे भलीभाँति प्रार्थथा करके हाथ जोड़कर गौ और यमकी प्रदक्षिणा करके सब कुछ ब्राह्मणको प्रदान करे
एवं दद्याद्विधानेन यो गां वैतरणीं खग।स याति धर्ममार्गेण धर्मराजसभान्तरे॥ ८४॥
स्वस्थावस्थशरीरे तु वैतरण्यां व्रतं चरेत्। देया च विदुषा धेनुस्तां नदीं तर्तुमिच्छता॥ ८५॥
सा नायाति महामार्गे गोदानेन नदी खग। तस्मादवश्यं दातव्यं पुण्यकालेषु सर्वदा॥ ८६॥
गङ्घादिसर्वतीर्थेषु ब्राह्मणावसथेषु च। चन्द्रसूर्योपरागेषु संक्रान्तौ दर्शवासरे॥ ८७॥
अयने विषुवे चैव व्यतीपाते युगादिषु। अन्येषु पुण्यकालेषु दद्याद्गोदानमुत्तमम्॥ ८८॥
हे खग जो विधान से वैतरणी गौ का दान करता है वह धर्ममार्ग से धर्मराज की सभा मे जाता है।और जीवन के अंदर वैतरणी व्रत को करना चाहिए ।और वैतरणी को पार करने की इच्छा से वैतरणी गौ का दान करना चाहिए ।हे खग वैतरणी गौ का दान करने से मार्ग मे वह नदी नहीं आती है।
गंगा आदि सभी तीर्थोमें, ब्राह्मणोंके निवास स्थानोंमें, चन्द्र और सूर्यग्रहणके कालमें, संक्रान्तिमें, अमावास्या तिथि में, उत्तरायण और दक्षिणायन मे उत्तम गौ दान देना चाहिए ।
यदैव जायते श्रद्धा पात्रं सम्प्राप्यते यदा । स एव पुण्यकालः स्याद्यतः सम्पत्तिरस्थिरा॥ ८९॥ अस्थिराणि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंचयः॥ ९०॥ आत्मवित्तानुसाोरेण तत्र दानमनन्तकम् । देयं विप्राय विदुषे स्वात्मनः श्रेय इच्छता॥ ९१॥
जब भी श्रद्धा पैदा हो जाए जब भी दान के लिए सुपात्र मिल जाए तभी आपको दान देना चाहिए । तभी पुण्यकाल होता है। आपको इसके बारे मे पता होना चाहिए ।क्योंकि संपति अस्थिर है और मृत्यु आने वाली है। इसलिए धर्म का संचय करना चाहिए । और अपनी क्षमता के अनुसार दान करना चाहिए ।
अल्पेनापि हि वित्तेन स्वहस्तेनात्मने कृतम् । तदक्षय्यं भवेहानं तत्कालं चोपतिष्ठति॥ ९२॥ गृहीतदानपाथेयः सुखं याति महाध्वनि। अन्यथा क्लिश्यते जन्तुः पाथेयरहितः पथि॥ ९३॥
अपने हाथों से दिया गया अल्प वित्त वाला दान भी काफी उपयोगी होता है।और उसका फल भी तत्काल प्राप्त होता है ।और यदि कोई दान देता है वह यममार्ग के अंदर सुख प्राप्त करता है नहीं तो वह क्लेश को प्राप्त करता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।
यानि यानि च दानानि दत्तानि भुवि मानवैः। यमलोकपथे तानि ह्युपतिष्ठन्ति चाग्रतः॥ ९४॥ महापुण्यप्रभावेण मानुषं जन्म लभ्यते। यस्तत्प्राप्य चरेद्धर्म स याति परमां गतिम्॥ ९५॥ अविज्ञाय नरो धर्म दुःखमायाति याति च। मनुष्यजन्मसाफल्यं केवलं धर्मसेवनम्॥ ९६॥
आपको बतादें कि धरती पर मनुष्य उसको जो जो दान करता है यममार्ग के अंदर मनुष्य को वह सब वैसे वैसे प्राप्त होता जाता है।मनुष्य के पुण्य कर्मों से ही उसे मनुष्य योनी मिलती है और इसलिए मनुष्य को धर्माचरण करना चाहिए । जो मनुष्य योनी को प्राप्त करने के बाद भी धार्माचरण नहीं होता है वह दुख प्राप्त करता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं और यही आपके लिए सही होगा ।
धनपुत्रकलत्रादि शरीरमपि बान्धवाः । अनित्यं सर्वमेवेदं तस्माद्धर्मं समाचरेत्॥ ९७॥ तावद्बन्धुः पिता तावद्यावज्जीवति मानवः। मृतानामन्तरं ज्ञात्वा क्षणात् स्नेहो निवर्तते॥ ९८॥
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरिति विद्यान्मुहुर्मुहुः । जीवन्नपीति संचिन्त्य मृतानां कः प्रदास्यति॥
धन, पुत्र, पत्नी आदि बान्धव और यह शरीर भी सब अनित्य होते हैं । इसलिए इंसान को सदैव ही धार्माचरण करना चाहिए ।जब तक मनुष्य जिंदा रहता है तब तक इंसान प्रिय बांधव सब का संबंध होता है। और जैसे ही वह मर जाता है सारे बंधन टूट जाता है।
जीवितावस्था में अपना आत्मा ही अपना बन्धु है-एऐसा बार-बार विचार करना चाहिये । इसलिए जन्म के समय ही इंसान को दान करना चाहिए । आप इस बात को अच्छी तरह से समझ सकते हैं और यही आपके लिए सही होगा ।
एवं जानन्निदं सर्व॑ स्वहस्तेनैव दीयताम् । अनित्यं जीवितं यस्मात् पश्चात् कोऽपि न दास्यति॥ १००॥ मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं क्षितौ । विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति॥ १०१॥ गृहादर्था निवर्तन्ते श्मशानात्सर्वबान्धवाः। शुभाशुभं कृतं कर्म गच्छन्तमनुगच्छति॥
ऐसा जानकार हाथ से दान करना चाहिए । मरने के बाद उसके लिए कोई भी दान नहीं देगा । यह बात अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए ।मूत शरीर को काठ और ढेलेके समान पृथ्वीपर छोड़कर बन्धु-बान्धव विमुख होकर लौट जाते हैं। और बंधु बांधव सब शमसान के अंदर छूट जाते हैं । धन घर मे छूट जाता है और शुभ अशुभ जो कर्म होते हैं।
वही उसके पीछे जाते हैं। और उसका फल ही मनुष्य को मिलता है। यह सब जानकर मनुष्य को दान देना चाहिए ।
शरीरं वह्निना दग्धं कृतं कर्म सहस्थितम्। पुण्यं वा यदि वा पापं भुङ्कते सर्वत्र मानवः॥ १०३॥
न को5पि कस्यचिद्वन्धु: संसारे दुःखसागरे । आयाति कर्मसम्बन्धाद्याति कर्मक्षये पुन: ॥ १०४॥
शरीर आग से जलता है लेकिन मनुष्य जो कुछ भी पाप और पुण्य करता है वह सब उसके साथ मे जाते हैं और उनको उसको भोग प्राप्त होता है।इस दुख पूर्ण संसार मे कोई किसी का बांधव नहीं है। इस अपने कर्म से संसार मे आता है और कर्मों का क्षय हो जाने पर वह संसार से चला जाता है।
१०४॥ मातृपितृसुतभ्रातृबन्धुदारादिसङ्गमः । प्रपायामिव जन्तूनां नद्यां काष्ठौघवच्चलः॥ १०५ ॥ कस्य पुत्राश्च पौत्राश्च कस्य भार्या धनं च वा । संसारे नास्ति कः कस्य स्वयं तस्मात् प्रदीयताम्॥ १०६॥ आत्मायत्तं धनं यावत् तावद्विप्रं समर्पयेत् । पराधीने धने जाते न किंचिद्वक्तुमुत्सहेत्॥ १०७॥
माता-पिता, पुत्र, भाई, बन्धु और पत्नी आदिका परस्पर मिलन आमतौर पर प्याउ पर एकत्रित हुए जंतुओं के समान होता है जोकि कभी भी स्थिर नहीं रहता है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
किसके पुत्र, किसके पौत्र, किसकी भार्या और किसका धन यह सब किसी का नहीं होता है। इस संसार मे सभी को बस अपने हाथ से दान देना चाहिए । आप इस बात को समझ सकते हैं।
जब तक धन आपके अधीन है ब्राह्रमण को दान देना चाहिए । जब धन दूसरे का हो जाता है तो उसके बाद दान देने का साहस नहीं रह पाता है।
पूर्वजन्मकृताद्दानादत्र लब्धं धनं बहु । तस्मादेवं परिज्ञाय धर्मार्थं दीयतां धनम्॥ १०८॥ धर्मात् प्रजायतेऽर्थश्च धर्मात् कामोऽभिजायते । धर्म एवापवर्गाय तस्माद्धर्मं समाचरेत्॥ १०९॥श्रद्धया धार्यते धर्मो बहुभिर्नार्थराशिभिः। निष्किञ्चना हि मुनयः श्रद्धावन्तो दिवंगताः॥ १९०॥ पूर्वजन्ममें किये हुए
दान से मुझे पहले से अधिक धन मिलता है। ऐसा जानकर धर्म के लिए दान देना चाहिए ।धर्म से अर्थ की और धर्म से काम की और धर्म से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।धर्म श्रद्धासे धारण किया जाता है, बहुत- सी धनराशिसे नहीं। अकिंचन मुनिगण भी श्रद्धावान् होकर स्वर्गको प्राप्त हुए हैं। आप इस बात को समझ सकते हैं।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भवत्युपहतमश्नामि प्रियमात्मनः॥ १९१॥ तस्मादवश्यं दातव्यं तदा दानं विधानतः। अल्पं वा बहु वेतीमां गणनां नैव कारयेत्॥ ११२॥ धर्मात्मा च स पुत्रो वै दैवतैरपि पूज्यते । दापयेद्यस्तु दानानि पितरं ह्यातुरं भुवि॥ ११३॥ पित्रोर्निमित्तं यद्वित्तं पुत्रैः पात्रे समर्पितम् । आत्मापि पावितस्तेन पुत्रपौत्रप्रपौत्रकेः॥ १९४॥ पितुः शतगुणं पुण्यं सहस्त्रं मातुरेव च। भगिनीदशसाहस्त्रं सोदरे दत्तमक्षयम्॥ १९५॥
जो मनुष्य पत्र, पुष्प, फल अथवा जल मुझे भक्तिभावसे समर्पित करता है । और भक्तिपूर्वक दिये गए पदार्थों को मैं प्राप्त करता हूं ।जरूरी नहीं है कि आप अधिक दान दें । आप बस थोड़ा सा ही दान दे सकते हैं । थोड़ा दान भी उत्तम फल देने वाला होता है।
पिताके उद्देश्यसे किये गये दानसे सौ गुना, माताके उद्देश्यसे किये गये दानसे हजार गुना, बहनके उद्देश्यसे किये गये दानसे दस हजार गुना और सहोदर भाईके निमित्त किये गये दानसे अनन्त गुना पुण्य प्राप्त होता है इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए ।
न चैवोपद्रवा दातुर्न वा नरकयातनाः। मृत्युकाले न च भयं यमदूतसमुद्भवम्॥ १९६॥
यदि लोभान्न यच्छन्ति काले ह्यातुरसंज्ञके। मृताः शोचन्ति ते सर्वे कदर्याः पापिनः खग॥ १९७॥
पुत्राः पौत्राः सहश्राता सगोत्राः सुहृदस्तु ये । यच्छन्ति नातुरे दानं ब्रह्माघ्नास्ते न संशयः॥ ११८ ॥
इति गरुडपुराणे सारोद्धारे आतुरदाननिरूपणो नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
दान देने वाला भययुक्त नहीं होता है। दान देने वाले को नरक यातना का भय नहीं होता है।यमदूतों से उसे कोई भी भय नहीं होता है।यदि कोई व्यक्ति लोभसे आतुरकालमें दान नहीं देते, वे कंजूस पापी (प्राणी) मरनेके अनन्तर शोकमग्न होते हैं।जो पुत्र, पौत्र, सहोदर भाई, सगोत्री और सुहज्जन दान नहीं देते वे ब्रह्रम हत्यारे हैं । इसके अंदर कोई संशय नहीं है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
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