तराइन का तृतीय युद्ध कब हुआ था ? तराइन का तृतीय युद्ध कब व किसके मध्य हुआ ? इसके बारे मे हम विस्तार से जानेंगे । तराइन का युद्ध अथवा तरावड़ी का युद्ध भारत के लिए काफी महत्वपूर्ण रहे थे क्योंकि तराइन के युद्ध के बाद ही भारत के अंदर मुस्लिम सता के द्वार खोल दिये थे और उसके बाद 700 सालों के लिए भारत मुगलों का गुलाम बनकर रह गया ।तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई०) को लड़ा गया था और उसके बाद तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ई०) को लड़ा गया था।पृथ्वीराज चौहान की इस युद्व के अंदर हार हुई थी।और मोहम्मद गौरी इसमे जीत गया था।
आपको बतादें कि तराइन के प्रथम युद्व के अंदर प्रथ्वीराज चौहान ने अनेक गलतियां की थी और इसका पूरा फायदा मोहम्मद गौरी ने उठाया था। सबसे बड़ी गलती तो चौहान की यह रही कि उसने संयोगिता के पिता से फालतू के अंदर दुश्मनी मोल ली । इसके अंदर उसके कई सामंत मारे गए । और इसका फायदा प्रथ्वीराज के दुश्मनों ने अच्छी तरह से उठाया और उन्होंने गौरी को यह सूचना दी कि अब वह प्रथ्वीराज को आसानी से जीत सकता है। इसके हालांकि तब भी गौरी को इसका विश्वास नहीं हुआ तो गौरी ने अपने गुप्तचर भेज कर इसका पता लगाया और उसके बाद तराइन के दूसरे युद्व के अंदर गौरी ने चौहान को हरा दिया था।
Table of Contents
तराइन का तृतीय युद्ध कब और किसके बीच हुआ
तराइन का तृतीय युद्ध जनवरी 1216 में दिल्ली के गुलाम वंश के सुल्तान अल तुतमश ( इलतुतमिश ) और ग़ज़नी के सुल्तान ताज अल दिन यिलदीज़ के बीच लड़ा गया जिसमें अल तुतमश ( इलतुतमिश ) की जीत हुई थी।
सुल्तान ताज अल दिन यिलदीज़ कौन था ? third battle of tarain in hindi
सुल्तान ताज अल दिन यिलदीज़ के बारे मे कोई ज्यादा जानकारी हमे नहीं मिल पाई है लेकिन मिली जानकारी के अनुसार सुल्तान मुइज़ अल-दीन मुहम्मद की मृत्यु के बाद, घुरिद साम्राज्य में दो गुट पैदा हुए; तुर्किक ग़ुलामों का एक गुट , जिसने मुइज़्ज़ के भतीजे घियाथ अल-दीन महमूद का समर्थन किया था , जबकि दूसरे गुट में मूल ईरानी सैनिक शामिल थे।जिन्होंने बहा अल-दीन सैम IIका समर्थन किया था। कुछ दिन बाद वह मर गया और उसने अपने दो बेटों का समर्थन किया था।जलाल अल-दीन अली और अला अल-दीन मुहम्मद का समर्थन किया।
ताज अल दिन यिलदीज़ ने दिल्ली के सिंहासन के लिए दावा किया था जिसके बदले मे इल्तुतमिश ने मना करते हुए कहा
दुनिया के प्रभुत्व का आनंद उस व्यक्ति द्वारा लिया जाता है जिसके पास सबसे बड़ी ताकत है। वंशानुगत उत्तराधिकार का सिद्धांत विलुप्त नहीं है, लेकिन बहुत पहले नियति ने इस रिवाज को समाप्त कर दिया था।
जनवरी 1216 के अंदर तराइन के मैदान मे दोनों के बीच भयंकर युद्व हुआ और उसके बाद यिल्डिज़ को इल्तुतमिश ने हराया और दिल्ली की सड़कों से होते हुए बदायूं भेजा गया, जहां उसे उसी साल मौत के घाट उतार दिया गया। यिल्डिज़ के पतन के बाद, क़बचा ने फिर से लाहौर पर कब्जा कर लिया।
इलतुतमिश कौन था ? 3rd battle of tarain was fought between
इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में शम्सी वंश का एक प्रमुख शासक था। कुतुब-उद-दीन ऐबक के बाद यह प्रमुख शासकों मे से एक था।इसने 1211 इस्वी से 1236 ई तक दिल्ली के उपर अपना शासन किया था। वैसे यह ऐबक का दामाद भी था।
आपको बतादें कि मुहम्मद ग़ोरी ने इसके कार्य से प्रभावित होकर इसको अमीरूल उमरा नामक महत्वपूर्ण पद दिया था। कुतुबद्दीन ऐबक की मौत अचानक से हो जाने की वजह से वह अपने उतराधिकारी का चुनाव नहीं कर सका था।ऐसी स्थिति के अंदर तुर्क अधिकारियों ने आरामशाह को गददी के उपर बैठाया गया लेकिन आमजनता के विरोध के बाद इल्तुतमिश को दिल्ली आमंत्रित किया गया । आरामशाह एवं इल्तुतमिश के बीच दिल्ली के निकट जड़ नामक स्थान पर भयंकर युद्व हुआ जिसके अंदर आरामशाह मारा गया और उसके बाद इल्तुतमिश दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ हो गया ।
यदि हम इल्तुतमिस के विरोधियों की बात करें तो उनके दो प्रमुख विरोधी थे ताजु्ददीन यल्दौज तथा नासिरुद्दीन कुबाचा ।यल्दौज जो था वह दिल्ली के राज्य को गजनी का अंग मानता था और उसके अंदर मिलाने की भरपूर कोशिश करता था।ऐबक तथा उसके बाद इल्तुतमिश खुद को स्वतंत्र मानते थे ।
हालांकि बाद मे यल्दोज को मार दिया गया था।कुबाचा ने पंजाब के आस पास अपनी स्थिति को पहले से ही मजबूत कर लिया था। 1217 ई मे इल्तुतमिश ने कुबाचा के विरूद्व कूच किया तो वह बिना युद्व किये ही भाग गया और मंसूरा नामक स्थान पर युद्व हुआ और कुबाचा पराजित हो गया ।उसके बाद लाहौर के उपर इल्तुतमिश का कब्जा हो गया ।सिंध, मुल्तान, उच्छ तथा सिन्ध सागर दोआब अदि के उपर कुबाचा का नियंत्रण बना रहा ।
इसी समय मंगोलों का आक्रमण हुआ तो इल्तुतमिश का ध्यान कुबाचा से हटा लेकिन बाद मे कुबाचा और इल्तुतमिश के बीच भयंकर युद्व हुआ और कुबाचा को सिंधू नदी के अंदर डूबोकर मार दिया गया ।
इल्तुतमिश का राजा बनना और कठिनाइयों का सामना
इल्तुतमिश जब राजा बना तो उसके समाने कई कठिनाइयां आई। और सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि गद्दी के अनेक दावेदार होना ।इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इसके अलावा इल्तुतमिश के संघर्ष के बारे मे हम आपको उपर बता ही चुके हैं।
मंगोल और इल्तुतिमिश
चंगेज़ ख़ाँ की बेटी से से जलालुद्दीन मुगबर्नी का प्रेम प्रसंग था।वह चंगेज़ ख़ाँ से डरकर पंजाब की ओर भाग कर आ गया । 1220-21 ई. में सिंध तक आ गया । उसके बाद चंगेज खां ने इल्तुतमिश को संदेश दिया कि वह मंगबर्नी की मदद ना करें । इल्तुतमिश यह जानता था कि चंगेज खां एक बहुत ही खतरनाक आक्रमणकारी है और यदि वह उसके शत्रू को शरण देता है तो इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे और हो सकता है। चंगेज खां उसका दुश्मन बन जाए । ऐसी स्थिति के अंदर उसने बुद्वि से काम मे लिया था।
इल्तुतमिश का विजय अभियान
1225 में इल्तुतमिश ने बंगाल के राजा हिसामुद्दीन इवाज पर आक्रमण कर दिया लेकिन हिसामुद्दीन इवाज डर गया और उसके बाद उसने इल्तुतमिश की अधीनता को स्वीकार कर लिया ।लेकिन जैसे ही इल्तुतमिश दुबारा दिल्ली लौटा उसने विद्रोह कर दिया । इल्तुतमिश के पुत्र नसीरूद्दीन महमूद ने 1226 के अंदर उसको पराजित कर दिया लेकिन नसीरूद्दीन महमूद की दो साल बाद मौत हो गई और उसके बाद इख्तियारुद्दीन बल्का ख़लजी ने बंगाल की गदी के उपर अधिकार कर लिया । उसके बाद 1230 ई. में इल्तुतमिश ने विद्रोह को दबाया और फिर इख्तियारुद्दीन बल्का ख़लजी मारा गया और बंगाल पर इल्तुतमिश का कब्जा वापस हो गया ।
1226 ई. में इल्तुतमिश ने रणथंभौर व 227 ई. में परमरों की राजधानी मन्दौर पर भी अधिकार कर लिया । 1231 ई. में इल्तुतमिश ने ग्वालियर के क़िले पर घेरा डालकर वहाँ के शासक मंगलदेव को बुरी तरह से हराया था।
वैध सुल्तान और उपाधिक का ग्रहण करना
इल्तुतमिश गुहिलौतों और गुजरात चालुक्यों के खिलाफ जो भी अभियान चलाए थे वह इसके अंदर सफल नहीं हो पाया था।फ़रवरी, 1229 में बग़दाद के ख़लीफ़ा से इल्तुतमिश को सुल्तान-ए-आजम की उपाधी प्रदान की थी। प्रमाण पत्र प्राप्त होने का सबसे बड़ा फायदा यह रहा कि इल्तुतमिस अपनी संतानों के लिए पद को वैध बना सका और आने वाले समय के अंदर यह पदवंशानुगत हो गया ।
इल्तुतमिश के सिक्के
इल्तुतमिश पहला तुर्क शासक था जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलाए ।चाँदी का टका और जीतल उसने चलाए थे । और सिक्कों के उपर उसने अपना नाम ख़लीफ़ा लिखवाया था। शक्तिशाली सुल्तान और साम्राज्य व धर्म का सूर्य जैसे नाम भी इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों के उपर खुदवाये थे ।
इस तरह से हुई इल्तुतमिश की मौत
बामियान अभियान पर जाते समय रास्ते के अंदर इल्तुतमिश काफी अधिक बीमार हो गया और उसकी बीमारी बढ़ती ही गई। जिसके परिणाम स्वरूप 30 अप्रैल 1236 को उसकी मौत हो गई हालांकि उसने अपने जीवन काल के अंदर कोई उपयोगी कार्य करवाए थे ।
रज़िया को राज्य सौंपना
इल्तुतमिश अपने अंतिम दिनों के अंदर उतराधिकारी को लेकर काफी चिंतित था।इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नसीरूद्दीन महमूद को राज गददी पर बैठाया जो बंगाल का शासक था लेकिन उसकी मौत 1229 ई के अंदर हो गई ।उसके बाद इल्तुतमिश जब अपनी मौत से लड़ रहा था तो उसने अपना राज्य अपनी पुत्री रजिया को सौंप दिया था।
इल्तुतमिश की वास्तुकला
इल्तुतमिश के अंदर कई वाटरमार्क और नगर सुविधाओं का निर्माण करवाया था।उन्होंने कुतुब मीनार का निर्माण पूरा किया , जिसे कुतुब अल-दीन ऐबक ने शुरू किया था। उन्होंने कुतुब मीनार के दक्षिण में हौज़-ए-शम्सी जलाशय और उसके आस-पास मदरसा का निर्माण भी करवाया था।
उन्होंने सूफी संतों के लिए दरगाह और मठ बनाए इसके अलावा बावड़ी और कुए भी बनवाए थे ।1231 में, उन्होंने अपने बड़े बेटे नसीरुद्दीन के लिए सुल्तान गारी अंतिम स्मारक बनाया था जो पहले ही मर चुका था। जामा मस्जिद शम्सी का निर्माण भी उसी ने करवाया था जो भारत की सबसे बड़ी मस्जिद थी।
इल्तुतमिश और उसका धर्म
इल्तुतमिश एक धार्मिक मुस्लमान था और वह प्रार्थना करने मे सारा समय व्यतीत करता था।अमीर रूहानी नामक उनके दरबारी कवि ने इसके बारे मे वर्णन भी किया है। सैय्यद नूरुद्दीन मुबारक ग़ज़नवी जैसे उलेमाओं के प्रवचन करने के लिए दरबार के अंदर आमंत्रित किया जाता था लेकिन इल्तुतमिश ने शाही नितियों के अंदर उसकी बात को नहीं माना था। इस्लामी शरीयत कानून लागू करने की बात आई और कहा कि ऐसा करने से हिंदुओं को इस्लाम के अंदर लाया जा सकता है तो इल्तुतमिश ने इस विचार को अव्यवहारिक बताया ।इसके अलावा इल्तुतमिश ने अपनी बेटी रजिया को उतराधिकारी बनाते समय उलेमाओं की सलाह नहीं ली ।
शम्स उद-दीन इल्तुतमिश एक गुलाम था जिसने अपना आरम्भिक जीवन कई नबावों के यहां पर व्यतीत किया था।1190 के दशक के उत्तरार्ध में, घुरिद गुलाम-कमांडर कुतुब अल-दीन ऐबक ने उन्हें दिल्ली में खरीदा था। ऐबक की मृत्यु के बाद, इल्तुतमिश ने 1211 में अपने अलोकप्रिय उत्तराधिकारी अराम शाह का विरोध किया और दिल्ली में अपनी राजधानी स्थापित की ।
उसके बाद इल्तुतमिश ने ऐबक की एक बेटी शादी भी करली थी।इसके अलावा कई विद्रोहियों को दबाने का काम भी किया और ऐबक की मौत के बाद जो क्षेत्र अधिकार से निकल गए थे उनको दुबारा अपने नियंत्रण के अंदर लाया गया । ताज अल-दीन यिल्डिज़ के अधिकार को भी उसने स्वीकार कर लिया था।
इल्तुतमिश को मिलने वाली कुछ खास उपाधियां
इल्तुतमिश को अपने शासन काल के दौरान कई प्रकार की उपाधियों से नवाजा गया और जिनके नाम इस प्रकार से हैं।
- मौला मुलुक अल-अरबी वा-ल-एजम (“किंग ऑफ द किंग्स ऑफ द अरब और पर्सियन”),
- मौला मुलुक अल-तुर्क वा-लाजम , सैय्यद अस-सलातीन अल-तुर्क वा-लजम , रिकाब अल-इमाम मौला मुलुक अल-तुर्क वा-एल-अंजाम (“मास्टर ऑफ किंग्स ऑफ तुर्क एंड द पर्सियन” )
- Hindgir (” हिंद का विजेता “)
- सल्तन सलतिन राख-शारूक (“पूर्व के सुल्तानों का सुल्तान”)
- शाह-ए-शरक (“पूर्व का राजा”)
- शहंशाह (“राजाओं का राजा”),
इल्तुतमिश के बारे मे एक दिलचस्प कहानी
इल्तुतमिश के बारे मे यह कहा जाता है कि वह बचपन मे एक धनवान परिवार मैं पैदा हुआ था।उनके पिता इलम खान इलबारी तुर्किक जनजाति के नेता थे। और कहा जाता है कि वह एक बुद्विमान लड़का था। उसके भाइयों को उससे ईर्ष्या होती थी। उसके भाइयों ने उसको एक व्यापारी को उसे दास के रूप मे बेच दिया था।उसके बाद उस व्यापारी ने इल्तुतमिश को एक धार्मिक अधिकारी को बेच दिया गया । धर्म के क्षेत्र मे इल्तुतमिश की गहरी रूची रही है।सदर-ए-जहाँ के परिवार के सदस्य ने उसे कुछ पैसे दिये और कुछ अंगूर लाने को कहा गया ।
और उसके बाद बीच मे ही उससे पैसे खो गए तो वह रोने लगा । और उसके बाद वहां पर एक सूफी संत ने उसको अंगूर खरीद कर दिये और बोला कि वह वचन दे कि शक्तिशाली होने पर धार्मिक और अच्छे लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करेगा ।
इल्तुतमिश ने भी बगदाद में कुछ समय बिताया , जहाँ उन्होंने शहाब अल-दीन अबू हफ़्स उमर सुहरावर्दी और औहदुद्दीन करमानी जैसे प्रसिद्ध सूफी मनीषियों से मुलाकात की। बाद में उसे बुखारा हाजी नामक एक व्यापारी को बेच दिया। इल्तुतमिश को बाद में जमालुद्दीन मुहम्मद चस्ट क़बा नामक एक व्यापारी को बेच दिया गया, जो उसे गजनी ले आया ।
तराइन का प्रथम युद्ध के 7 कारण जिनको आपको जानना चाहिए ।
असली सच्चाई पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को कैसे मारा
यह हैं भारत का 5 सबसे बड़ा रेलवे स्टेशन की रोचक जानकारी
और उसके बाद कस्बे के अंदर बुद्विमान दास के आगमन की सूचना दी गई ।जिसने इल्तुतमिश के लिए 1,000 सोने के सिक्के और तमगेज ऐबक नामक एक अन्य दास की पेशकश की। जब जमालुद्दीन ने दासों के बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया गया । कुतुब अल-दीन ऐबक ने बाद मे इल्तुतमिश को खरीद लिया था।
तराइन का तृतीय युद्ध कब और किसके बीच हुआ ? लेख आपको पसंद आया होगा यदि आपका कोई सवाल है तो आप नीचे कमेंट कर सकते हैं।