धनतेरस व्रत कथा dhanateras vrat katha विधी व महत्व के बारे मे इस लेख मे हम विस्तार से जान सकेगे ।
हिंदु त्योहारो मे धनतेरस का बहुत महत्व है । यह त्योहार कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाया जाता है । अनेक कथाओ से यह ज्ञात हुआ है की भगवान धन्वन्तरी का इस दिन जन्म हुआ था वे समुद्र-मंन्थन से प्रकट हुए थे । भगवान धन्वन्तरि को धन का देवता माना जाता है
ऐसा माना जाता है कि इस दिन जो भी कोई आभुषण खरिद कर अपने घर लाता है । वहा पर भगवान धनवन्तरि की कृपा से धन की कोई कमी नही होती है । इसी कारण आज धनतेरस के दिन पुरे बाजार मे लोगो की सख्या बहुत देखने को मिलती है ।
दिवाली के दो दिन पहले यह त्योहार मनाया जाता है । इस दिन भगवान धनवन्तरि की पूजा पूरे भारत मे कि जाती है । इसी दिन को हिंदु एक शुभ दिन मानते है । उनाका मानना है की जो भी कार्य इस दिन प्रारम्भ किया जाए वह कार्य अवश्य ही पूरा लाभ लेकर आता है ।
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धनतेरस व्रत कथा
एक बार की बात है यमराज ने अपने सभी दुतो को बुलाया और उन्हे वही पर रहने के लिए कहा कुछ समय के बाद वहा पर यमराज आए और अपने दुतो से पुछते है की हे प्रिय दुतो मै आपके कार्य से बहुत प्रसन्न हूं । पर मै यह जानना चाहता हूं की जब आप लोग किसी के प्राण लेकर आते है तो आपको उन लोगो के लिए दया नही आती है क्या ।
यमदूत ने कुछ समय सोचा फिर कहा की हम महाराज आपके दुत है जो आप कहते हो उसके बारे मे हम सोचते ही नही । आपकी अज्ञा का पालन कराना हमारा धर्म है । जब हम लोगो के प्राण निकालते है तो हम अपना कार्य कर रहे होते है इसमे हमें दया केसे आ सकती है । यमराज यह सुनकर सोचने लगे की जरुर ये मेरे से घबराकर ऐसा बोल रहे है ।
यमराज ने अपने दुतो से कहा तुम को ढरने की कोई जरुरत नही है यह बात तो मै स्वयं पुछ रहा हूं तुम बेझीझक बोल सकते हो । ऐसा सुनकर यमराज के दुतो ने कहा की हम को वेसे तो कोई दुख नही होता है की हम किसी के प्राण निकाल रहे है ।
एक दिन की बात है जब हम प्राण निकाल रहे तो उस दिन हमार हृदय काँप ने लगा था । हम कुछ नही करने के लायक रहे । यमराज भी उस घटना के बारे मे जानना चाहते थे वे अपने दुतो से कहते है की वह घटना आप मुझे बताए । यमदुतो ने कहा की महाराज वह घटना कुछ इस प्राकार है ।
एक राज्य का राजा हंस हुआ करता था वह एक दिन अपने रास्ते से इधर उधर भटकने लगा । फिर वह भटकता हुआ एक अन्य राज्य मे जा पहंचा । वहा के राजा का नाम हेमा था वह हंस के पास जाकर उसे अपने महल मे लेजाकर बडी ही सेवा की । हेमा नाम का राजा हंस का बडा सत्कार किया था ।
जब राजा हंस का हेमा के घर मे आगमन हुआ तो कुछ समय के बाद हेमा की पत्नी के एक पुत्र का जन्म हुआ । राजा हेमा पुत्र पाकर बहुत ही प्रसन्न हुआ । उसने पुरे राज्य मे मिठाई बाटने के लिए अपने सेनिको को भेज दिया । राजा के सेनिको ने राजा की प्रजा को एक राजकुमार के आने की शुभ सुचना देकर उनका मुख मिठा करवाया ।
अगले ही दिन राजा हेमा ने कुछ ब्राह्मणो को बुलाकर उस बालका का नाम करण करने को कहा । ब्राह्मणो को अपनी ज्योतिस विदा से पता चला की उस बालका का जब भी विवाह होगा तो उस बालक के प्राण नष्ट हो सकते है । जब भी उस बालक के विवाह के चार दिन बित जाएगे तो उसे प्राण निकल जाएगे ।
राजा हेमा यह सुनकर पुरा हाल गया वह चितित हो गया । तब राजा हेमा ने उस बालका को ब्रह्मचारी का जीवन जीने के लिए एक यमुना नदी के तट पर घुफा हुआ करती थी वहा पर भेज दिया और अपने राज्य के सभी लोगो को यह सुचना पहुचा दी की कोई भी कन्या उस बालक के आगे नही आएगी ।
यमुना नदी के निकट अपने सेनिको को बेठा दिया की कोई कन्या उसे दिखे तक नही । समय बितता गया और एक दिन एक कन्या उस ब्रह्मचारी बालक के सामने जा पहुची और दोनो ने विवाह कर लिया । वह कन्या कोई और नही थी वह राजा हंस की ही पुत्री थी ।
एक एक करके तिन दिन बित गए थे जब अगला यानि चोथा दिन आया तो उस बालक के प्राण निकल गए । ऐसा कहकर यमदुत ने अपने महारज यमराज से कहा की वे बहुत ही सुंदर थे । उनकी जोड़ी कामदेव तथा रति के समान ही थी । उनकी जोड़ी संसार की सबसे अच्छी जोडी थी ।
उनके बारे मे सोचकर ही हमारा हृदय काँप उठता है । उसके बारे मे सुनकर यमदेव की आखो मे भी आसु आ गए । यमराज ने कहा की इस तरह के कार्य को हमे करना ही पडता है इसे कोई नही रोक सकता है यह तो विधी का विधान है ।
ऐसा सुनकर यमदुतो ने कहा की क्या कोई ऐसा उपाय नही है जिससे इस तरह की मृत्यु को रोका जा सके । यमराज ने कहा की हा है तो सरु यह सुनकर यमदुतो ने एक साथ पुछा वह क्या है महाराज तब यमराज ने कहा की वह धनतेरस का व्रत है जो भी कोई इस व्रत को पुरी श्रदा के साथ कर लेता है तो उसे इस तरह की मृत्यु से छुटकारा मिल जाता है ।
इस तरह से कहा गया है की जो भी कोई धनतेरस का व्रत करता है तो उसे प्रणों की कोई चिंता नही रहती है। वह छोटी उमर मे नही मरता है ।
धनतेरस व्रत कथा 2
एक समय की बात है भगवान विष्णु अपने ध्यान मे मगन थे कुछ समय के बाद वे अपने ध्यान से बाहर आए और देवी लक्ष्मी से कहा की हे देवी मे मृत्युलोक मै जाकर आता हूं । विष्णु भगवान की बात सुनकर देवी लक्ष्मी ने कहा की क्या हुआ आप वहा जाकर क्यो आ रहे हो ।
पर विष्णु भगवान ने कुछ नही कहा तब लक्ष्मी जी ने कहा की मै भी आपके साथ जाना चाहती हूं । भगवान विष्णु ने कहा की आप वहा पर जाकर क्या करोगी वहा पर आप को नही जाना चाहिए ऐसा कहते हुए भगवान विष्णु ने वहा पर जाने से मना कर दिया ।
लक्ष्मी जी ने जिद कर ली की मै भी आपके साथ मृत्युलोक मे जाउगी । तब भगवान विष्णु ने कहा की हे देवी आप अगर जाना ही चाहती हो तो आपको मेरा कहना मनना होगा और तब ही आप मेरे साथ मृत्युलोक जा सकोगी । लक्ष्मी जी ने कहा की हां आप कहोगे वेसा ही करुगी पर आप मुझे अपने साथ ले जाओ।
तब भगवान विष्णु व देवी लक्ष्मी वहा से रवाना होकर भूमंडल आ गए थे । वहा पर जाकर भगवान विष्णु ने कहा की हे देवी लक्ष्मी आपने कहा था की मै जो कहुगा आप वेसा ही करोगी तो आप यही पर रहना मै दक्षिण दिशा की और जाकर आता हूं । बादमे मै आकर आपको आगे ले जाउगा ।
यह कह कर भगवान विष्णु वहा से दक्षिण दिशा की और चल पडे । कुछ समय बित गया तब लक्ष्मी जी ने सोचा की भगवन दक्षिण दिशा कि और अकेले ही चले गए है अवश्य ही वहा पर कुछ अनोखा होगा जो मुझे नही बताना चाहते है इसलिए तो वे मुझे यहा पर छोडकर अकेले ही चले गए है ।
लक्ष्मी जी भी भगवान विष्णु के पिछे पिछे चल पडी । कुछ दुर जाने के बाद एक खेत दिखाई दिया जिसमे पिले फुल लगे थे उस खेत मे सरसों थी जिसके पिले ही फुल होते है । इतने सुंदर फुलो और उसकी खुशबू को सुघ कर लक्ष्मी जी उन्हे तोडने के लिए आज्ञे गई । कुछ दुर और जाने के बाद लक्ष्मी जी ने देखा की गने के खेत मे गने लगे हुए है
उससे रहा नही गया और गने के खेतो से गने को तोड कर उसका रस पिने लगी । लक्ष्मी जी को यह नही पता था की भगवान विष्णु आकर उन्हे रस चुसते हुए देखेगे तो क्या कहेगे ।
कुछ समय के बाद विष्णु जी लक्ष्मी के पास आकर कहा की तुम यहा पर क्या कर रही हो मेने यहा पर आने से तुम्हे मना किया था और तुम यहा पर आकर कर क्या रही हो एक किसान के खेत मे से चोरी कर कर गने का रस चुस रही हो ।
ऐसा कहते हुए भगवरन विष्णु ने माता लक्ष्मी को श्राप दे दिया कि तुम इस किसान के पास रहकर 12 महा तक इसकी सेवा करोगी ।
यही तुम्हारी करनी का फल है यह कहकर भगवान विष्णु वहा से चले गए । अब लक्ष्मी माता कर भी क्या सकती थी भगवान विष्णु की बात को मानना ही पडा । फिर वह तो श्राप था जिससे भगवान भी नही बच सकते थे । अब माता लक्ष्मी किसान के घर मे रहने लगी थी ।
उनकी सेवा करती रही थी कुछ समय बित गया तो एक दिन माता लक्ष्मी ने किसान की पत्नी से कहा की तुम पहले स्नान करके आओ और बादमे पुरी श्रदा के साथ माता लक्ष्मी की पूजा करो उनकी रसोई बनाओ अगर तुम ऐसा करोगी तो तुम्हे जो चाहे वह पुरी तरह से तम्हे मिल सकेगा ।
किसान की पत्नी पहले स्नान करकर आई और बादमे माता लक्ष्मी के कहे अनुसार पुरी श्रदा के साथ पूजा की जिससे किसान का घर चमक उठा उसके घर मे किसी की भी चिज की कमी नही रही । उसके घर मे खुशिया छा गई । धन की वर्षा होने लगी थी । जिससे किसान बडी ही खुशी के साथ अपना जीवन जीने लगा ।
12 वर्ष कब बित गए किसान को पता भी नही चता । 12 वर्ष का श्राप काट कर माता लक्ष्मी वहा से जाने लगी । माता लक्ष्मी ने अपना संदेश विष्णु भगवान के पास पहूंचाया तो भगवान विष्णु उन्हे लेने के लिए आ गए । जब भगवान विष्णु व माता लक्ष्मी ने कहा की अब हम जा रहे है ।
तो किसान यह सुनकर उदास हो गया और बोला की हम इन्हे नही जाने देगे । यह सुनकर भगवान विष्णु बोले की आप इन्हे रोकना चाहते है जो कही पर नही रुक सकी है । इसे तो बडे बडे राजा महाराजा व देत्य देव नही रोक सकते तो आप इसे रोक सकते हो । अरे किसान यह तो देवी है जो सभी के कष्ट दुर कर देती है ।
यह तो इन 12 माहा के लिए तुम्हारे घर इस कारण रह सकी है क्योकी यह तो मेरे द्वारा दिया गया श्राप काट रही थी । किसान कुछ नही समझना चाहता था वह तो माता लक्ष्मी को यही रहने के लिए कहने लगा वह तो भगवान विष्णु के सामने हठ करने लगा की अब तो मै माता लक्ष्मी को नही जाने दुगा ।
तब लक्ष्मी माता ने किसान से कहा की किसान अगर तुम मुझे यहा से जाने देना नही चाहते हो तो तुम्हे मेरे लिए एक काम करना होगा कल धनतेरस का दिन है । अगर तुम इस दिन सुबह जल्दी से उठकर अपने घर को स्वच्छ बनाकर मेरी पूजा करोगे तो मै तुम्हारे घर मे रहा करुगी ।
तब किसान ने कहा की माते मै आपकी पूजा केसे करु पुरी विधी बताओ । तब माता लक्ष्मी ने कहा की तुम सुबह उठकर अपने घर को धो लेना और बादमे अपने बरीडे मे एक चोकी लेकर उस पर एक ताबे का कलश लाकर रख दो और उस कलश मे एक रुपया ढाल कर तुम मेरी शुद्ध गाय के घी से पूजा करोगे तो मै हमेशा उस कलश मे रहा करुगी ।
अगले दिन धन तेरस थी किसान सुबह 4 बजे ही उठ गया स्नान कर कर पुरे घर को पानी से धोने लगा बादमे माता के बताए अनुसार पूजा की जिससे माता लक्ष्मी की कृपा उस किसान पर हमेसा बनी रहने लगी । इसी लिए माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है ताकी घर मे धन की कोई कमी नही हो ।
इस तरह से जो भी धनतेरस के दिन माता लक्ष्मी की पूजा करेगा उसके घर मे धन दोलत की कोई कमी नही हो सकती है साथ ही वे सुख शांति के साथ रहेगे ।
धनतेरस व्रत की विधी
- धनतेरस का व्रत करने से पहले यह जानना आवश्यक होता है की धनतेरस का व्रत किसके लिए किया जाता है ।
- सबसे पहले धनतेरस के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करें ।
- स्नान करने के बादमे अपने पुरे घर की साफ सफाई करनी होती है अत: अपने घर को साफ करें उसके बादमे गंगा जल से अपने घर को पवित्र कर दें ।
- सुबह से लेकर अच्छे कार्यो को करना चाहिए बादमे बाजार से कुछ बर्तन खरीदकर लाना होता है अत: खरिददारी करें ।
- बाजार से मिट्टी का बना हुआ दिपक लेकर आए । उस दिपक को पूजा के समय काम मे लिया जाता है ।
- बाजार से एक कलश भी लेकर आना चाहिए व कुछ सोने की वस्तु भी खरीदकर लाए ।
- पूजा करते समय पूजा करने के स्थान को पुरी तरह से साफ कर कर उस पर गंगा जल छिड़कर स्वच्छ बाना दे ।
- इसके बादमे यम देव व धनवतरी की प्रतिमा या फिर जो कलश आप बाजार से लाए थे उसे वहा पर रखकर शुद्ध गाय के घी से दिपक जलाकर उनकी पूजा करें ।
- पूजा करते समय कलश मे कुछ रुपय भी रख दे ।
- भगवान धनवन्तरी की पूजा करते समय यह मंत्र दोहराए ॐ धन धनवंतारये नमः ।
- इसके बादमे माता लक्ष्मी की भी पूजा की जाती है ।
- बादमे धनवन्तरी की आरती करें माता लक्ष्मी के भजन व आरती करें ।
- अब भगवान धनवन्तरी व माता लक्ष्मी को प्रसाद का भोग लगाए ।
- प्रसाद को अपने परिवार मे सभी को बाट दे ।
- इसके बाद मे भगवान धनवन्तरी व माता लक्ष्मी से धन व जीवन सुख शांति से बित ऐसा वर मागे ।
महत्व
- इस व्रत को करने से सबसे बडा लाभ तो यह होता है की धन की कोई कमी नही होती है ।
- इस व्रत को करने से माता लक्ष्मी व धंवन्तरी का 12 वर्षो तक घर मे वास रहता है ।
- धनतेरस का व्रत करने व बर्तन खरिदकर लाने से घर मे खुशिया छा जाती है ।
- इस व्रत मे यमराज की भी पूजा की जाती है ताकी इस व्रत को करने से अकालमृत्यु को दुर किया जा सके ।
- यमराज का यह वरदान दिया गया है की इस व्रत को जो भी कोई करेगा उसे मुझसे डरने की कोई जरुरत नही है ।
- आज हर किसी के जीवन मे दुख भरे हुए है । इस व्रत को करने से उन दुखो से छुटाकरा मिल जाता है ।
- इस व्रत को करने से घर मे प्रेम भाव बना रहता है किसी के मन मे भी बुरा नही रहता है ।
धन्वंतरि जी की आरती
जय धन्वंतरि देवा, जय धन्वंतरि जी देवा।
जरा-रोग से पीड़ित, जन-जन सुख देवा।।जय धन्वं.।।
तुम समुद्र से निकले, अमृत कलश लिए।
देवासुर के संकट आकर दूर किए।।जय धन्वं.।।
आयुर्वेद बनाया, जग में फैलाया।
सदा स्वस्थ रहने का, साधन बतलाया।।जय धन्वं.।।
भुजा चार अति सुंदर, शंख सुधा धारी।
आयुर्वेद वनस्पति से शोभा भारी।।जय धन्वं.।।
तुम को जो नित ध्यावे, रोग नहीं आवे।
असाध्य रोग भी उसका, निश्चय मिट जावे।।जय धन्वं.।।
हाथ जोड़कर प्रभुजी, दास खड़ा तेरा।
वैद्य-समाज तुम्हारे चरणों का घेरा।।जय धन्वं.।।
धन्वंतरिजी की आरती जो कोई नर गावे।
रोग-शोक न आए, सुख-समृद्धि पावे।।जय धन्वं.।।
लक्ष्मी की आरती
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता।
तुमको निशिदिन सेवत, हरि विष्णु विधाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग-माता।
सूर्य-चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
दुर्गा रुप निरंजनी, सुख सम्पत्ति दाता।
जो कोई तुमको ध्यावत, ऋद्धि-सिद्धि धन पाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
तुम पाताल-निवासिनि, तुम ही शुभदाता।
कर्म-प्रभाव-प्रकाशिनी, भवनिधि की त्राता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
जिस घर में तुम रहतीं, सब सद्गुण आता।
सब सम्भव हो जाता, मन नहीं घबराता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न कोई पाता।
खान-पान का वैभव, सब तुमसे आता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
शुभ-गुण मन्दिर सुन्दर, क्षीरोदधि-जाता।
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
महालक्ष्मीजी की आरती, जो कोई जन गाता।
उर आनन्द समाता, पाप उतर जाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
मां लक्ष्मी के भजन
जय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
तू सुन ले मेरी पुकार मेरी पुकार माता ।।
जय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माताआदि भगवती मा तूने ही जाग को जानम दिया है
तू सावित्री तू ही गौरी तू ही विष्णु प्रिया है ।।
हो ज्योति मई तेरे रूप कई तेरी लीला अपरंपार
अपरंपार माता आदि भगवती मा तूने ही जाग को जानम दिया है ।।
तू सावित्री तू ही गौरी तू ही विष्णु प्रिया है
हो ज्योति मई तेरे रूप कई तेरी लीला अपरंपार
अपरंपार माताजय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
जय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता तेरी दया से पल में बनते बिगड़े काम सभी के
तू जिसे चाहे नारायण की कर दे कृपा उसी पे
तेरा ध्यान धारू गुणगान कारू मेरी पूजा
मेरी पूजा कर स्वीकार कर स्वीकारतेरी दया से पल में बनते बिगड़े काम सभी के
तू जिसे चाहे नारायण की कर दे कृपा उसी पे
तेरा ध्यान धारू गुणगान कारू मेरी पूजा
मेरी पूजा कर स्वीकार कर स्वीकारजय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
हे माता हे माता हे माता हे माताजय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
जय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
तू सुन ले मेरी पुकार मेरी पुकार माता
जय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
श्री लक्ष्मी चालीसा
सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही। ज्ञान बुद्घि विघा दो मोही ॥
तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥
जय जय जगत जननि जगदम्बा। सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥
तुम ही हो सब घट घट वासी। विनती यही हमारी खासी॥
जगजननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥
विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥
केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥
कृपा दृष्टि चितववो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥
ज्ञान बुद्घि जय सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥
क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥
चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥
जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥
स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥
तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥
अपनाया तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥
तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी। कहं लौ महिमा कहौं बखानी॥
मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन इच्छित वांछित फल पाई॥
तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मनलाई॥
और हाल मैं कहौं बुझाई। जो यह पाठ करै मन लाई॥
ताको कोई कष्ट नोई। मन इच्छित पावै फल सोई॥
त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि। त्रिविध ताप भव बंधन हारिणी॥
जो चालीसा पढ़ै पढ़ावै। ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥
ताकौ कोई न रोग सतावै। पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै॥
पुत्रहीन अरु संपति हीना। अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना॥
विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥
पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करैं गौरीसा॥
सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै॥
बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥
प्रतिदिन पाठ करै मन माही। उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥
बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥
करि विश्वास करै व्रत नेमा। होय सिद्घ उपजै उर प्रेमा॥
जय जय जय लक्ष्मी भवानी। सब में व्यापित हो गुण खानी॥
तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहिं॥
मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजै॥
भूल चूक करि क्षमा हमारी। दर्शन दजै दशा निहारी॥
बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी। तुमहि अछत दुःख सहते भारी॥
नहिं मोहिं ज्ञान बुद्घि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥
रुप चतुर्भुज करके धारण। कष्ट मोर अब करहु निवारण
केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्घि मोहि नहिं अधिकाई॥
भगवान धंवन्तरी का जन्म
एक समय की बात है जब सभी असुरो ने देवताओ को बेहाल करने लगे तो सभी देवता हारने के बाद मे देवराज इंद्र के पास जाकर उनसे कहा की हे इंद्र इन असुरो से हमारी साहयता करे वे हमे सताने लगे है । तब इंद्र ने कहा की हे देवो आप मेरे पास आए हो इस कारण मै आपकी साहयता अवश्य करुगा पर मै उनका सामना नही कर सकता हूं ।
इंद्र ने कहा की हमे इस समस्या के समाधान के लेय भगवान ब्रह्मा के पास जाना चाहिए वे ही इस समस्या का समधान करेगे । ऐसा कह कर इंद्र सभी देवो के साथ ब्रह्मलोक मे ब्रह्मा के सामने जा पहूंचे । वहा पर जाकर सभी देवों ने ब्रह्मा का प्रणाम किया । तब ब्रह्मा ने कहा की आप सभी देव इस वक्त यहा पर क्या कर रहे हो ।
तब इंद्र ने कहा की ब्रह्माजी असुरो के आतक से बच कर ये सब मेरे पास आए थे मै इन्हे आपके पास लेकर आ गया । आप हम सबकी समस्या का समाधान करे । तब ब्रह्मा ने कहा की हें देवो आप भगवान विष्णु के पास जाओ वे आपकी इस समस्या का समाधान अवश्य कर देगे ।
ब्रह्मा की बात सुनकर सभी वहा रवाना हो गए और भगवान विष्णु के पास जाकर यह बात उन्हे भी बताई । देवताओ का दुख सुनकर भगवान विष्णु ने सोचा की इन देवताओ को असुरो से बचाने के लिए इन्हे हमेसा के लिए अमर करना होगा ताकी असुरो के आतक से इन्हें हमेशा के लिए बचाया जा सके ।
इस लिए भगवान विष्णु असुरो के साथ मिलकर समुद्री मंथन का कार्य प्रारम्भ कर दिया । इस कार्य को करते समय जो रत्न निकले थे वे है कालकूट ,ऐरावत ,कामधेनु ,उच्चैःश्रवा ,कौस्तुभमणि, कल्पवृक्ष,रम्भा नामक अप्सरा,लक्ष्मी,वारुणी मदिरा,चन्द्रमा,शारंग धनुष, शंख, गंधर्व, अमृत ।
समुद्री मंथन का कार्य चल रहा था जिसमे सबसे पहले हलहाल विष प्राप्त हुआ था जिसे भगवान शिव ने अपने कठ मे धारण कर लिया था क्योकी सभी ने इकार कर दिया की इसे हम धारण नही करेगे । जब आगे का कार्य चल रहा था तो दुसरा रत्न ऐरावत प्राप्त था जिसे ऋषीयो को दे दिया था ।
फिर कामधेनु प्राप्त हुई जिसे दैत्यराजा बली को सोप दिया था । कामधेनु एक गाय है। इसका रुप बडा ही सुंदर है । इससे जो भी मागा जाए वह अवश्य ही पुरा होता है । उच्चैःश्रवा नाम का रत्न इसके बाद मे प्राप्त हुआ था जो सफेद रग का था जिसके साथ मुख थे । इसे सभी देवताओ ने इंद्र को सोप दिया था ।
इसके बाद मे कौस्तुभमणि प्राप्त हुई थी 5वा रत्न यही था । इसे भगवान विष्णु ने धारण किया था यह वही मणि है जिसका उल्लेख कृष्ण लिला मे मिलता है । इसके बादमें कल्पवृक्ष निकला था जिसे भी भगवान इंद्र को दे दिया जो आज भी स्वर्ग मे है । ऐसा माना जाता है की अगर इस वृक्ष से कोई भी चिज मागी जाए तो यह वह अवश्य देता है ।
इसके बाद मे रम्भा प्राप्त हुई थी जो एक अप्सरा थी । इसे इंद्र ने अपनी सभा के लिए ले लिया था । यह वही रम्भा है जिसके द्वारा ऋषी विश्वामित्र की तपस्या को भग करने के लिए इंद्र ने भेजा था । इसके बादमे लक्ष्मी प्राप्त हुई थी जो भगवान विष्णु की पत्नी है । लक्ष्मी धन की देवी है ।
इसकी हिंदु पूजा करते है इसकी दिवाली मे गणेश के साथ पूजा की जाती है । वारुणी मदिरा 9 वा रत्न है जिसे असुरो को सोपा गया था । इसके बाद मे चन्द्रमा नाम का रत्न प्राप्त हुआ था । जो रात्री को चमकता है । इसकी चमक सूर्य के कारण होती है । इसके बादमे शारंग धनुष प्राप्त हुआ था जिसे भगवान विष्णु ने धारण किया था ।
इसके बादमे जो रत्न था उसका नाम शंख है । यह भगवान विष्णु के पास होता है । इसे शुभ कार्यो मे बजाया जाता है । गंधर्व इसके बाद मे हुए थे यह स्वर्ग की सबसे छोटी जाती मानी जाती है ।
औरअन्त मे अमृत को लेकर भगवान धन्वन्तरी का जन्म हुआ था । उनका रुप बडा ही सुंदर था उनके हाथो मे एक कलश था जिसमे अमृत था । भगवान धन्वन्तरी के हाथो मे अमृत को देख कर देवता व असुर दोनो ही खुश हो गए थे ।
असुर अमृत को देखकर उस पर झपट पडे और कलश को ले लिया । तब भगवान ने सोचा की अगर असुर अमृत का सेवन कर लेगे तो इन्हे हराना नामुनकी हो जाएगा । तब भगवान ने मोहिनी का रुप लेकर असुरो को मोह लिया और अमृत को अपने पास ले लिया । तब भगवान ने उस अमृत का सेवन सभी देवताओ को करने के लिए आगे बडे ।
देवताओ को अमृत का सेवन करने पर उनके पास बहुत अर्जा आ गई । असुरो से यह नही देखा गया तो उन्होने देवताओ पर हमला बोल दिया जिससे असुर प्राजित हो गए थे क्योकी देवता तो अमृत का सेवन कर चुके थे । कार्तिक कृष्ण त्रोयोदशी को भगवान धन्वन्तरी का जन्म हुआ इसी कारण से आज इसी दिन को धनतेरस क नाम से जानते है । इस तरह से भगवान धंवन्तरी का जन्म हुआ ।