इस लेख के अंदर हम वैभवलक्ष्मी व्रत कथा vaibhavalakshmee vrat katha आरती, भजन, चालिसा, व्रत करने की विधी व महत्व के बारे मे पूरी तरह से जान सकेगे ।
शुक्रवार के दिन माता लक्ष्मी का व्रत जोरो सोरो से किया जाता है । इस व्रत को वैभवलक्ष्मी व्रत कहा जाता है । इस दिन माता का भोग के रुप मे भोजन खिर खिलाई जाती है ।
लक्ष्मी माता को हिंदुओ की प्रसिद्ध देवी माना जाता है । धन, सम्पदा, शान्ति और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं। लक्ष्मी के एक मुख, चार हाथ हैं व कमल पर विराजमान है ।कमल कोमलता का प्रतिक माना जाता है । माता के दो हाथो मे कमल रहता है ।जो सौन्दयर् और प्रामाणिकता के प्रतीक है।
लक्ष्मी को धन की देवी कहा जाता है यह जहा भी रहेगी वहा पर धनदोलत की कोई कमी नही रह सकती है । देवी के एक हाथ मे सोने के सिक्को से भरा घड्डा है ।जिससे धन की वर्षा होती रहती है ।
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वैभवलक्ष्मी व्रत कथा
एक शहर मे शीला व उसका पति रहा करते थे । शीला धार्मिक प्रकृति की थी पर उसका पति विवेक शिल था । उन्हें जब भी समय मिलता था तो प्रभु के भजन किया करते थे । समय बितता गया और उसका पति बुरे लोगो के साथ रहने लगा था वह जल्दी ही करोड़पति बनना चाहता था इस लिये वे बुराई को चुन कर उस रास्ते पर चल पडा था ।
कुछ समय के बाद वह रोड़पति बन गया यानी वह रास्ते पर आ गया था । उसके पति को सभी बुरी लत लग गई । वह दारु व बिडी जैसे ही अनेको जहरीली चिजो के अंदर फंसता जा रहा था ।
वह अपने दोस्तो के साथ जुआ व बियर पिने लगा कुछ समय के बाद वह रास्ते पर फिरने वाला भिखरी की तरह होकर रह गया था ।
शीला का पति बहुत बुरा बनने लग गया पर वह भगवान पर भरोसा कर कर सब कुछ सहने लग गई थी ।वह अपना ज्यादा से ज्यादा समय प्रभु के भजन सुनने पर लगाया करती थी ।एक दिन उसके घर मे एक बुडिया आई वह उस बुडिया को देखते ही रह गई थी । बुडिया के नेत्रो से प्रेम भाव के अमृत झलक रहा था । उसके चेहरे पर मुस्कान थी ।
वह उस बुडिया को अपने घर मे बेठने के लिये कहा पर उसके घर पर कुछ नही था इसी कारण शीला उसे एक फटी हुई चादर पर ही बैठा दिया । बुडिया शीला से कहने लिगी की शीला क्या हुआ मुझे पहचाना नही ।
तुम रोजाना शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर में भजन-कीर्तन करने के लिये आया करती हो न मै भी वहा पर आया करती हूं । शीला को नही पता चला की वह कोन है । वह बुडिया कहने लगी की तुम कुछ दिनो से मंदिर नही आ रही हो क्या हुआ सब ठिक तो है । शीला उस बुडिया की ऐसी बातो को सुनकर रोने लगी और बस रोते जा रही थी ।
तब उस बुडिया ने कहा की बेटी रोओ मत मै तुम्हारी मा के जैसी हूं मेरी बातो को नही मानोगी । जो भी बात है तुम मुझे बता सकती हो ।ऐसा सुनकर शीला रोने से रुकी और उस बुडिया को सारी बाते बता दि । बातो को बताते बताते फिर से रोने लग गई ।
बुडिया बोली की पुत्री इस संसार मे सभी को दुख आते है ,अगर दुख नही आते तों सुख का तो पता नही चल सकता है । और तुम तो माता लक्ष्मी के भजन करती हो तम्हारे दुख खतम हो गऐ है । अब तो तुम अपने कर्मो का फल पाया करोगी ।
वह बुडिया कहने लगी की तुम बस ऐसा करना की शुक्रवार को माता लक्ष्मी के व्रत करते रहना और भजन करते रहना तुम्हारे दुख जल्दी ही खत्म हो जायगे ।
उस बुडिया के कहने पर वह उस से व्रत की की विधी के बारे मे पुछा तो बुडिया ने कहा की इस व्रत को वैभवलक्ष्मी व्रत कहा जाता है ।इस व्रत को करने से सभी मनो कामनाएं पूरी हो जाती है । सारे कष्ट नष्ट हो जाते है ।धन की बोछार होने लगती है ।
सुख-संपत्ति और यश प्राप्त होने लगते है । शीला उस बुडिया की बातो को सुनकर खुसी अनुभव करने लगी । वह अपने नेत्रो को बंद कर के उस बुडिया की बातो को सुनरही थी । जब शीला अपनी आखो को खोलती है ।तो वह देखती है की वहा पर बुडिया नही है ।
तो वह सोचने लगी की वह कहा गई उसे यह समझमे आया की वह तो लक्ष्मी माता ही थी जो बुडिया के रुप मे दुख बाटने के लिये आई थी । दुसरे ही दिन शुक्रवार था वह स्वेरे ही स्नान कर वैभवलक्ष्मी का व्रत करने के लिये बेठ गई ।
उसने पुरी श्रद्धा के साथ वैभवलक्ष्मी व्रत की विधी की व कथा सुनी और अंत मे माता को भोग लगाकर अपने पति को प्रसाद खिलाया । जेसे हि वह अपने पति को प्रसाद खिलाया तो उसका पति अपने आप मे कुछ अजीब सा अनुभव करने लगा ।
उस दिन शीला के पति ने उसे मारा नही उसे ताने नही दिये थे । तब शीला के मन मे तो व्रत करने की इच्छा और होने लग गई । शीला ने पुरे 21 वैभवलक्ष्मी व्रत किये थे । जब 21 वा व्रत था तो शीला ने 7 स्त्रियों को बुलाकर भोजन कराया और सात वैभवलक्ष्मी की व्रत करने की विधी व कथा की पुस्तक दि ।
बादमे वे माता को मन ही मन मे याद करती है और माता से कहती है की मा मेने आपके पुरे 21 व्रत करने के बारे मे संकलप लिया था जो मेने पूरी श्रद्धा के साथ पुरा किया है ।
और कहा की हे मां मेरे सारे कष्टो को दुर कर दो और सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना । साथ ही जो भी आपका यह व्रत करे उसे खुश रखना कुवारी लड़की को मन चाहे पति देना । साथ ही इस संसार भर मे खुसीयो की कमी मत रखना । इतना कह कर अपने मंदीर मे धनलक्ष्मी का स्वरुप स्थापित कर दिया था ।
शीला के पुरी मनोकामनाए पुरी कर दि उसका पति सभी बुरी चिजो को छोडकर एक अच्छा आदमी बन गया । वह पुरी मेहनत के साथ अपना काम करने लगा था । कुछ समय बित जाने के बाद उसके घर मे धन दोलत की कोई कमी नही रही ।
वह करोडपति बन गया था । इससे उसके पास वाले लोग भी इतनी जल्दी धनवान बनने के बारे पुछने लगे । इसी कारण एक दिन शीला ने अपनी आस पास वाले लोगो को बता दिया की वैभवलक्ष्मी का व्रत करने से आपके सारे कष्ट दूर हो जायगे ।
साथ ही शीला ने व्रत करने की पुरी विधी बता दि । शीला की बातो को सुनकर वे सभी वैभवलक्ष्मी व्रत करने लग गए । शीला ने बताया की यह व्रत सात, ग्यारह या इक्कीस या फिर अपनी मन्नत के अनुसार कर सकते है ।
अंतिम व्रत के दिन सात कुवारी कन्या को बुलाकर उन्हे खाना खिलाकर उद्यापन करना चाहिए । इसे कहने से सभी लोग माता के व्रत करने लग गए । और धिरे धिरे बुराईया दूर होने लग गई ।
विधी
- सबसे पहले प्रातकाल जल्दी उठकर स्नान कर स्वच्छ कपडे पहन लिजिए ।
- बादमे एक पाटा ले आए और उस पर माता की प्रतिमा को स्थापित कर दिजिए ।
- माता लक्ष्मी के पास कुछ सिक्के रख दिजिए व एक कलश पानी का भर कर रख लिजिए ।
- प्रसाद के रुप मे माता लक्ष्मी के लिए खिर अपने पास रख ले।
- लक्ष्मी माता की पुरी श्रदा के साथ पूजा करे ।
- पूजा करने के बाद आरती करे व भजन करे ।
- लक्ष्मी चालिसा का जाप करना सबसे अच्छा माना जाता है अत: चालिया का जाप करे ।
- माता लक्ष्मी को प्रसाद के रुप मे खिर का भोग लगाए व बादमे वह खिर सभी को बाट दिजिए ।
- कलश मे जो जल रखा था उससे लक्ष्मी माता को पानी पीलाऐं । बादमे वह जल अपने घर मे छिडक कर पूरे घर को स्वच्छ बना दे ।
महत्व
- इस व्रत को करने से घर मे आ रही समस्या समाप्त हो जाती है ।
- वैभवलक्ष्मी व्रत करने से धन प्राप्त होता है ।
- इस व्रत को करने से घर मे आ रहे दुख दूर होते है व खुशियो की लहर छा जाती है ।
- लक्ष्मी माता का व्रत करने से घर के सभी लोग सही रास्ते पर चलते है ।
- धन के साथ साथ पुत्र प्राप्ति का सुख भी मिलता है।
- वैभव लक्ष्मी व्रत करने से आपका समान चारो दिशाओ मे होने लग जाता है ।
वैभवलक्ष्मी की आरती
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता।
तुमको निशिदिन सेवत, हरि विष्णु विधाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग-माता।
सूर्य-चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
दुर्गा रुप निरंजनी, सुख सम्पत्ति दाता।
जो कोई तुमको ध्यावत, ऋद्धि-सिद्धि धन पाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
तुम पाताल-निवासिनि, तुम ही शुभदाता।
कर्म-प्रभाव-प्रकाशिनी, भवनिधि की त्राता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
जिस घर में तुम रहतीं, सब सद्गुण आता।
सब सम्भव हो जाता, मन नहीं घबराता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न कोई पाता।
खान-पान का वैभव, सब तुमसे आता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
शुभ-गुण मन्दिर सुन्दर, क्षीरोदधि-जाता।
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
महालक्ष्मीजी की आरती, जो कोई जन गाता।
उर आनन्द समाता, पाप उतर जाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता॥
मां लक्ष्मी के भजन
आज बरसो लक्ष्मी माँ हमारे आँगन मे
आज छम छम बरसो माँ हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
आज बरसो लक्ष्मी माँ हमारे आँगन मे
आज छम छम बरसो माँ हमारे आँगन मे
देहेरी अंगना दीप जलाओ
देहेरी अंगना दीप जलाओ
आज बाँधु बंधन बार हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
आजी अमावस रैना अंधेई
आजी अमावस रैना अंधेई
मा भर दो धन भंडार हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
मंगला छोटा कलश सजाऊ
मंगला छोटा कलश सजाऊ
मैं आरती करू तुम्हारी हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
राजा और रंक तुम हे सब चाहे
तुम हे सब चाहे
माँ महिमा तेरी अपार हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
हमारे आँगन मे
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जय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
तू सुन ले मेरी पुकार मेरी पुकार माता ।।
जय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माताआदि भगवती मा तूने ही जाग को जानम दिया है
तू सावित्री तू ही गौरी तू ही विष्णु प्रिया है ।।
हो ज्योति मई तेरे रूप कई तेरी लीला अपरंपार
अपरंपार माता आदि भगवती मा तूने ही जाग को जानम दिया है ।।
तू सावित्री तू ही गौरी तू ही विष्णु प्रिया है
हो ज्योति मई तेरे रूप कई तेरी लीला अपरंपार
अपरंपार माताजय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
जय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता तेरी दया से पल में बनते बिगड़े काम सभी के
तू जिसे चाहे नारायण की कर दे कृपा उसी पे
तेरा ध्यान धारू गुणगान कारू मेरी पूजा
मेरी पूजा कर स्वीकार कर स्वीकारतेरी दया से पल में बनते बिगड़े काम सभी के
तू जिसे चाहे नारायण की कर दे कृपा उसी पे
तेरा ध्यान धारू गुणगान कारू मेरी पूजा
मेरी पूजा कर स्वीकार कर स्वीकारजय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
हे माता हे माता हे माता हे माताजय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
जय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
तू सुन ले मेरी पुकार मेरी पुकार माता
जय जय लक्ष्मी माता हे माता हे माता
श्री लक्ष्मी चालीसा Laxmi Chalisa
सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही।
ज्ञान बुद्घि विघा दो मोही ॥
तुम समान नहिं कोई उपकारी।
सब विधि पुरवहु आस हमारी॥
जय जय जगत जननि जगदम्बा।
सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥
तुम ही हो सब घट घट वासी।
विनती यही हमारी खासी॥
जगजननी जय सिन्धु कुमारी।
दीनन की तुम हो हितकारी॥
विनवौं नित्य तुमहिं महारानी।
कृपा करौ जग जननि भवानी॥
केहि विधि स्तुति करौं तिहारी।
सुधि लीजै अपराध बिसारी॥
कृपा दृष्टि चितववो मम ओरी।
जगजननी विनती सुन मोरी॥
ज्ञान बुद्घि जय सुख की दाता।
संकट हरो हमारी माता॥
क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो।
चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥
चौदह रत्न में तुम सुखरासी।
सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥
जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा।
रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥
स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा।
लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥
तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं।
सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥
अपनाया तोहि अन्तर्यामी।
विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥
तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी।
कहं लौ महिमा कहौं बखानी॥
मन क्रम वचन करै सेवकाई।
मन इच्छित वांछित फल पाई॥
तजि छल कपट और चतुराई।
पूजहिं विविध भांति मनलाई॥
और हाल मैं कहौं बुझाई।
जो यह पाठ करै मन लाई॥
ताको कोई कष्ट नोई।
मन इच्छित पावै फल सोई॥
त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि।
त्रिविध ताप भव बंधन हारिणी॥
जो चालीसा पढ़ै पढ़ावै।
ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥
ताकौ कोई न रोग सतावै।
पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै॥
पुत्रहीन अरु संपति हीना।
अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना॥
विप्र बोलाय कै पाठ करावै।
शंका दिल में कभी न लावै॥
पाठ करावै दिन चालीसा।
ता पर कृपा करैं गौरीसा॥
सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै।
कमी नहीं काहू की आवै॥
बारह मास करै जो पूजा।
तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥
प्रतिदिन पाठ करै मन माही।
उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥
बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई।
लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥
करि विश्वास करै व्रत नेमा।
होय सिद्घ उपजै उर प्रेमा॥
जय जय जय लक्ष्मी भवानी।
सब में व्यापित हो गुण खानी॥
तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं।
तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहिं॥
मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै।
संकट काटि भक्ति मोहि दीजै॥
भूल चूक करि क्षमा हमारी।
दर्शन दजै दशा निहारी॥
बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी।
तुमहि अछत दुःख सहते भारी॥
नहिं मोहिं ज्ञान बुद्घि है तन में।
सब जानत हो अपने मन में॥
रुप चतुर्भुज करके धारण।
कष्ट मोर अब करहु निवारण
केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई।
ज्ञान बुद्घि मोहि नहिं अधिकाई॥
माहालक्ष्मी व्रत कथा
एक समय सौराष्ट्र में भद्रश्रवा नाम के राजा रहा करता था । चार वेद, छः शास्त्र, अठारह पुराणों का उन्हें ज्ञान था। सुरतचंद्रिका नामक उनकी रानी थी । वह सुन्दरता के साथ ही पवित्र थी । राजा के सात पुत्र थे और बादमे उन्हे एक कन्या हुई जो वरदान के कारण हो सकी ।
उसका नामकरण किया गया तो नाम शामबाला रखा गया था । एक बार महालक्ष्मी ने सोचा की क्यो न उस राजा के राजमहल मे जाकर कुछ दिनो तक रहा जाए । जिससे उसके पास धन दोलत और आने लग जाएगा । अगर गरिब के घर मे रहा जाए तो वह अपने उपर ही धन खर्च करने लगता है ।
अगर उस राजा के यहा रहा जाए तो वह धन को अपनी प्रजा मे बाट कर सभी को सुख कर सकता है । यह सोचकर महालक्ष्मी राजा के महल की और चल पडी थी । उन्होने सोचा की मै एक बुढ़ी ब्राह्मण स्त्री का रुप लेकर उसके घर मे कुछ दिनो तक रहा करुगी ।
यह सोचकर लक्ष्मी माता राजा के महल मे चली गई । महल मे जाते ही एक दासी ने उससे सभी बातो के बारे मे पुछा जैसे आप कोन हो क्या काम करती हो यहा पर किस कारण आई हो । दासी ने देखा की उसके चेहरे पर अजीब सी चमक है ।
वृद्ध ब्राह्मणी के रुप मे लक्ष्मी ने कहा की बालीका मेरा नाम तो कमला है और मेरे पति भुवनेश है जो द्वारिका मे रहा करते है । मै तो आपकी रानी से मिलने के लिये आई हूं जो पूर्व के जन्म मे एक वैश्य की पत्नी थी । वैश्य रोजाना ही अपनी पत्नी को मारा करता था उनके घर मे कभी भी सुख नही रहता था ।
इस कारण वह अपना घर छोड कर वहा से चली गई उसे स्वयं को भी नही पता था की वह कहा पर रहा करेगी पर वह वहा से चुपचाप चल पडी । वह एक जगल मे गई और वहा पर रहने लग गई जगल मे उसे कुछ भी खाने को नही मिलता था।
वह कुछ दिनो तक तो वहा पर भटकती रही फिर एक दिन मै वहा से जा रही थी । तब मेने ही उसे महालक्ष्मी की कथा सुनाई व पूरी विधी बताते हुए उसे व्रत करने के लिये कहा था । वह गुरुवार को महा लक्ष्मी का व्रत करने लग गई । वह पुरी भग्ति के साथ व्रत करने लगी । माता लक्ष्मी उसके व्रत से प्रसन्न होकर उसे सारे सुख दे दिए ।
उसका पति सुधर कर उसके साथ रहने लग गया । उसके घर मे धन की वर्षा होने लगी । यानी धन की कोई कमी नही रही ।फिर कुछ माह के बाद उनके घर मे पुत्री का जन्म हुआ । दोनो ही बादमे माता लक्ष्मी का व्रत करने लग गए । जब वे मर गए तो वह दोनो ही लक्ष्मी लोक मे रहेने लगे थे ।
जब उसका समय वहा पर पुरा हो गया तो वह पृथ्वी लोक मे एक स्त्री के रुप मे राजघराने मे जन्म लिया । पर वह यहा पर आकर माता लक्ष्मी का व्रत करना भूल गई है । जो मै उसे यहा पर वापस बताने के लिए आई हूं ।
बुडिया की बातो को सुनकर दासी ने सोचा की ऐसा हो सकता है क्या । फिर दासी को उसकी बातो पर विश्वास हो गया । दासी ने उस बुडिया का आर्शिवाद लिया और उससे महा लक्ष्मी कें व्रत करने की विधी के बारे मे पुछा तो बुडिया ने उसे विधी तथा कथा सुनाई ।
दासी उस बुडिया को अपनी रानी के पास ले गई पर उसकी रानी को अपने रानी होने का घमण्ड था । रानी के पास धन की कोई कमी नही थी इस कारण रानी बुडिया की बातो पर विश्वास न कर रानी ने उस बुडिया को बहुत ही बुरा कहा ।
बुडिया रुपी लक्ष्मी को रानी की बातो पर बहुत ही घुस्सा आया । तो बुडिया वहा से चली गई पर रास्ते मे जाते समय लक्ष्मी को रानी की पुत्री शामबाला मिली जो बहुत भग्ति भाव रखा करती थी ।
उसने बुडिया को प्रणाम किया तो वह बुडिया शामबाला से कुछ नही कहा शामबाला ने बुडिया से कहा की माजी क्या हुआ आप इस तरह से वापस जा रही हो । तब लक्ष्मी ने शामबाला को पुरी बात बताई तो शामबाला बुडिया रुपी लक्ष्मी से क्षमा मागी ।
लक्ष्मी को उस पर दया आ गई और लक्ष्मी देवी ने रानी कों क्षमा कर दिया । शामबाला ने सोचा की क्यो न मे ही महालक्ष्मी को व्रत करु इसी तरह से वह महालक्ष्मी का व्रत करना प्रारम्भ कर दिया था ।
कुछ समय बित गया पर शामबाला व्रत पुरीश्रद्धा के साथ कर रही थी जिससे उसका विवाह सिद्धेश्वर नाम के राजा के पुत्र मालाधर से हो गया था । शामबाला वहा पर अपना जीवन बडी ही आनन्द के साथ काट रही थी । उसके घर मे धन की कोई भी कमी नही रही ।
इधर रानी का जीवन बडा ही कष्ट के साथ बितने लग गया । राजा भद्रश्रवा का राज्य उसके हाथ से चला गया था ।यहा तक की उनके पास खाने के लिये कुछ नही रहा ।
कुछ दिन बिता दिए पर एक दिन रानी ने राजा से कहा की हमारे पास तो अब कुछ भी नही रहा है यहा तक की खाना मिलना भी बहुत मुस्कील हो गया है । तो क्यो न अपनी पुत्री के पास चले जाए और अपने दामाद को अपनी समस्या बाताएगे तो वे कुछ तो हमारे लिए कर ही देगे ।
रानी को नही मालुम था की जिस बुडिया का उसने अपमान किया था वह लक्ष्मी माता थी। जिसके कारण ही आज उन्हें ये दिन देखने को मिले है । राजा भद्रश्रवा को रानी की बात अच्छी लगी और दोनो ही अपनी पुत्री के नगर की और रवाना हो गए ।
जाते समय रास्ते मे रानी को प्यास लगी तो वे दोनो ही वहा नजदीक एक नदी से पानी पिने के लिये चले गई । वहा पर दासिया पानी ले जा रही थी तो उन्होने उनसे पुछा की आप कोन है यहा पर क्या कर रहे है । तो रानी ने कहा की हम हमारी पुत्री शामबाला के पास आए है।
दासिया ऐसा सुनकर रानी को सुचना कर दि तो रानी ने उनके स्वागत के लिए हाथीऔ को लाने के लिए भेज दिया था । जब वे वहा रहने के कुछ दिनो के बाद वहा से जाने लगे तो उनकी पुत्री ने उसे सोने से से भरा घड्डा दिया जिसे देखकर रानी बहुत ही खुश हो गई ।
कुछ दिनो के बाद रानी अपनी पुत्री के पास वापस आ गई उस दिन गुरुवार था । उसकी पुत्री माहालक्ष्मी का व्रत कर रही थी जिसे देखकर रानी ने उससे उसके बारे मे पुछा । तब रानी को शामबाला ने माहालक्ष्मी व्रत करने के बरे मे कहा । रानी वापस आकर माहालक्ष्मी का व्रत करने लग गई ।
जिससे उसे आपना राजपाठ वापस मिल गया था । तब उसकी पुत्री अपनी मा के घर आई वहा रहने के बाद वह जाने लगी तो उसे उसकी मां ने कुछ नही दिया था । पर शामबाला को बुरा नही लगा की उसकी मा ने उसे कुछ नही दिया तब वह अपने मायेके से कुछ नमक लेकर वहा से अपने पति के घर आ गई ।
जब उसके पति ने कहा की हमे भी बताओ अपने मां से क्या लाई हो । तब उसने कहा की आप पहले भोजन करले बाद मे आपको पता चल जाएगा की मे क्या लाई हूं ।
तब शामबाला ने अपने पति को भोजन परोसा तो उसके पति को खाने मे नमक नही ढाला हुआ लगा तब शामबाला ने कहा की यह लो जो मै अपनी मा के पास से लाई हू । वह नमक था जो खाने को स्वादिष्ट बना दिया । उसके पति को उसकी यह नमक लाने की की बात बहुत ही अच्छी लगी थी । इस तरह से वे दोनो खाना खाने लग गए । इस तरह से जो भी माहालक्ष्मी व्रत करेगा उसके दुख दुर हो जाएगे ।
लक्ष्मी-विष्णु विवाह कथा
एक बार की बात है लक्ष्मी माता के स्वयंवर का आयोजन हुआ ।तब उनसे विवाह करने के लिये अनेक देव देवताए आये थे पर माता अपने मन ही मन मे भगवान विष्णु को अपना पति मान चुकी थी । वहा पर नारद मुनी भी उनसे विवाह करने के लिये आए थे ।
नारद जी विष्णु भगवान के पास गये और कहा की प्रभु मुझे हरि रुप दे देजिए विष्णु भगवान जानते थे की वे हरि रुप क्यो माग रहे है । पर वे अपने प्रिय भग्त को निरास केसे देख सकते थे ।इसी कारण विष्णु जी ने उन्हे हरी रुप दे दिया । जिसे पाकर वे बहुत ही खुस हो गए ।
वे हरि रुप पाकर वहा से लक्ष्मी के स्वयंवर मे पहुचे वे मन ही मन सोच रहे थे की राजकुमारी उन्हे ही वर चुनेगी । पर जब राजकुमारी ने विष्णु भगवान को अपना वर चुना तो वे वहा से चले गए और रास्ते मे एक जल का तालाब मिला तो नारद जी ने देखा की मै दिखता केसा हूं ।
तब नारद जी ने उस तालाब के अंदर अपना चेहारा देखा तो वे डर गए और हेरान होकर सोचने लगे की यह कोन है । नारद जी ने फिर से अपना चेरहा देखा तो उन्हे एक बंदर के जेसा चेहरा दिखा ।
नाद जी ने सोचा की विष्णु भगवान ने मेरे साथ बहुत ही बडा छल किया है । पर उन्हे क्या मालुम की हरि रुप के दो मतलब होते है । पहला विष्णु है और दुसरा वानर है । नाद ने विष्णु से यह नही कहा था की आपके जेसा रुप चाहिए बल्की यही कहा था की मुझे हरि रुप चाहिए तो विष्णु जी ने उन्हे वानर का रुप दे दिया था ।
नारद जी इस बात के बारे मे नही सोचकर वे विष्णु भगवान पर क्रोधीत होकर बैकुण्ठ की और चल पडे और वहा पर जाकर वे विवेक मे आ गए और भगवान विष्णु को श्राप दे दिया की जिस तरह से मुझे यह दुख: सहना पडा है उसी तरह से आपको पृथ्वी पर जन्म लेकर यह दुख सहना पडेगा ।
विष्णु भगवान भी उनके श्राप के कारण कुछ नही कर सके और राम के रुप मे जन्म लिया ओर माता सिता से दूर हो गए थे । इस तरह से भगवान विष्णु का विवाह हुआ था और दोनो ही राम व सिता के रुप मे पृथ्वी पर अपने कष्ट काटने के लिये चले गए ।
बादमे नारद जी को अपनी गलती का अहसास हुआ तो वे भगवान विष्णु के पास पहुच गए और अपनी इस गलती के लिये क्षमा मागी । विष्णु भगवान बडे ही दयालु थे । वे नारद जी को क्षमा कर दिया था ।
पर नादजी का श्राप तो उन्हे लग गया था इस कारण विष्णु भगवान को श्राप भोगने के लिये पृथ्वी पर जन्म लेना पडा । लक्ष्मी भी अपने पति के कष्टो मे उनके साथ रहना चाहती थी इस कारण वे भी विष्णु जी से पृथ्वी पर जन्म लेने के लिये कहने लगी थी ।
विष्णु जी ने उन्हे मना कर दिया था पर वे नही मानी वे बार बार कहने लग गई इस कारण विष्णु भगवान ने उनकी बात को माना था । तब से आज तब भगवान विष्णु को नारद मुनि अपना प्रभु मानने लग गए थे । नारद मुनि दिन रात सोते जागते खाते पिते नारायण का नाम जपने लग गए थे ।
तपस्थली बेलवन
माता के तपस्थली बेलवन के बारे मे बहुत कुछ पडने को मिलता है। यह वृंदावन मथुरा के यमुना पार स्थित जहांगीरपुरग्राम मे स्थित है । बलराम यहा पर अपने साथिओ के साथ गाय चराया करते थे ।
इस जगह पर माता लक्ष्मी की जय जय कार होती रहती है । यहा के लोगो के मन मे माता के प्रती बढी भग्ती रखते है । लक्ष्मी माता की पूजा करने के लिये रोजाना ही जल्दी उठकर स्नान करकर पूजा करने के बाद ही अपना कोई कार्य करते है ।
भगवान कृष्ण जी ने यहा पर दिव्य महारासलीला की थी जिनके साथ सोलह हजार एक सौ आठ गोपिका थी । तब माता लक्ष्मी इस लिला मे भाग लेना चाहा था । पर वहा पर पहुचने पर लक्ष्मी को पता चला की यहा पर केवल गोपिका हि आ सकती है ।
अन्य कोई यहा पर नही आ सकते है । जब वे अंदर जाना चाही तो उसे अंदर जाने से रोक दिया था । इसी लिये लक्ष्मी माता वृंदावन की और मुख किया और वहा पर ही भगवान कृष्ण की आराधना करने के लिये बैठ गई थी । वहा पर महा लिला सुरु हो चुकी थी ।
जब भगवान कृष्ण गोपिका के साथ लिला करते समय थक गए तो वहा पर लक्ष्मी माता कृष्ण जी को अपने हाथ व पुरी श्रदा के साथ खिचडी बनाकर खिलाई । जब भगवान विष्णु का पेट भर गया और वे बहुत ही आंदित हो गए थे ।
वे माता को उन्हे खिचडी खिलाने के लिये धन्यवाद किया और कहा कि मै आपके खिचडी बनाकर खिलाने के कारण बहुत ही खुस हो गया हूं । तब माता ने कहा की अगर ऐसी बात है
तो आप मुझे ब्रज मे रहने की आज्ञा दे दिजिए तब भगवान कृष्ण ने माता लक्ष्मी को वहा पर रहने के लिये आज्ञा दे दी । उसी दिन से यानी पौषमाह के गुरुवार के दिन माता की बहुत ही धुम धाम से पूजा की जाती है । वहा पर एक विशाल मंदिर भी बनाया गया है ।
जिसके अंदर माता लक्ष्मी का मुख वृंदावन की और है । वहा पर लक्ष्मी माता ध्यान लगाए हुए है । वहा पर लक्ष्मी माता खिचडी का भोग लगाया जाता है । वहा पर अनेक स्थानो से भग्त आते है व खिचडी चढाते है ।
इसी लिये वहा पर खिचडी महोत्सव का आयोजन होता है । जो पौषमाह में प्रत्येक गुरुवार को पूरे दिन ही लक्ष्मी माता के खिचडी का ही भोग लगाया जाता है ।